नाशवान अधिभूत हैं, पुरूष दैव अधि जान
इस देह में अधियज्ञ मैं, पार्थ मुझे तू जान।। 8-4 ।।
भगवद्गीता में जीव के लिए अधिदैव शब्द का प्रयोग हुआ है. यह जीव शक्ति ईश्वर की परा प्रकृति है जिसके मात्र एक अंश ने सम्पूर्ण सृष्टि को धारण किया है.
अंग्रेजी भाषा में जीव के लिए creature, organism शब्द प्रयुक्त होते हैं. इससे हिन्दू वेदान्त अथवा भगवद्गीता व अन्य दर्शन ग्रंथों में जगह जगह प्रयुक्त जीव शब्द को समझने में भ्रान्ति हो जाती है.
जीव-उपाधि युक्त ब्रह्म है अर्थात देह, मन, बुद्धि, अज्ञान आदि के कारण सीमित शक्ति वाला है, यह जीव आत्मा का अज्ञानमय स्वरूप है. इसकी उपस्थति से जीवन है अर्थात यह किसी प्राणी अथवा organism का जीवन सूत्र है. आत्मा आपकी अस्मिता है और पूर्ण शुद्ध ज्ञान स्वरूप है. परन्तु आत्मा जो अज्ञान से अपने वास्तविक स्वरूप को भुला बैठी है जीव कहलाती है.
ब्रह्म, आत्मा, परमात्मा सर्वव्यापी सत्ता के अलग अलग नाम हैं. वह पूर्ण विशुद्ध ज्ञान है. यह जगत के अणु अणु में व्याप्त है अर्थात जगत के प्रत्येक अणु का कारण ब्रह्म है. यह सृष्टि ब्रह्म का विस्तार है.
ब्रह्म जगत के अणु अणु में व्याप्त है अथवा कण कण में ईश्वर है, इसका अर्थ है कि कण कण ईश्वर से ही बना है जैसे मनुष्य और उसके बाल या नाखून. बाल या नाखून मनुष्य का विस्तार है पर बाल या नाखून मनुष्य नहीं है. बाल मनुष्य का अंग है इसी प्रकार सृष्टि ईश्वर का विस्तार है ईश्वर का अंग है. अंग व्यक्ति से अलग नहीं होता पर अंग के कार्य और शक्ति की सीमा सीमित और निश्चित होती है और व्यक्ति अंग की तुलना में असीम होता है. इसी प्रकार ईश्वर सब प्रकार से असीम है और मनुष्य या सृष्टि का कोई भी तत्त्व सीमित है.
.इसे और सरल पूर्वक जानें. किसी भी प्राणी में प्रतिविम्बित ब्रह्म अर्थात शुद्ध ज्ञान का अंश जिसके कारण उसका जीवन है, उसकी क्रियाएँ हैं, उसकी अस्मिता है वह अंश, वह बीज ब्रह्म है परन्तु उस प्राणी का शरीर, मन. बुद्धि आदि व्यक्त प्रकृति और विकृति हैं.
ब्रह्म(परमात्मा)–ब्रह्म अंश (परा प्रकृति- जिसने सम्पूर्ण सृष्टि को धारण किया है।)- ब्रह्म अंश का भी अंश -प्राणी (जिनमें मनुष्य भी एक है). अब सृष्टि के विस्तार की कल्पना करें और पूर्ण शुद्ध ज्ञान का कितना सूक्ष्म अंश आपके अंदर है जिसका आप विस्तार हैं, चिन्तन करें. यही है कण कण में भगवान.
भगवद्गीता में भी श्री भगवान कहते हैं.
पार्थ अन्य मेरे सिवा परम न कारण कोई
मुक्ता सम गूंथा हुआ, मुझसे यह संसार।। 7-7।।
हे अर्जुन मैं विश्वात्मा ही इस सृष्टि और प्रकृति का परम कारण हूँ। सृष्टि प्रकृति से उत्पन्न होती है। सृष्टि और प्रकृति अलग अलग दिखाई देती हैं परन्तु अन्त में सृष्टि प्रकृति में समा जाती है और प्रकृति मुझमें समा जाती है। यह सम्पूर्ण सृष्टि और प्रकृति मुझमें उसी प्रकार गूंथी हुई है जिस प्रकार मणियां एक धागे में आपस में गुथी रहती हैं। संक्षेप में सम्पूर्ण सृष्टि ब्रह्म का ही विस्तार है। ब्रह्म ही सबका परम कारण है।
आठ तत्व अपरा प्रकृति, अपर परा है जान
सकल जगत धारण करे, जीव इसे तू जान।। 7-5।
मेरी प्रकृति दो प्रकार की है अपरा और परा । अपरा प्रकृति के आठ भाग हैं:-
1 - पृथ्वी, 2 - जल, 3 - अग्नि, 4 - वायु, 5 - आकाश, 6 - मन, 7 - बुद्धि और 8 -अहंकार। इसे जड़ प्रकृति भी कहते हैं। जिससे यह सम्पूर्ण जगत धारण किया जाता है, परमात्मा की जीव प्रकृति सम्पूर्ण सृष्टि में व्याप्त होकर सृष्टि को धारण किये हुए है।
जगत समाया अव्यक्त में, स्थित मम सब भूत
अचरज यह तू जान ले, नहिं स्थित मैं भूत।। 9-4।।
श्री भगवान कहते हैं हे अर्जुन यह सम्पूर्ण सृष्टि निराकार निर्गुण परमात्मा का साकार विस्तार है। यह जगत निर्गुण परमात्मा से विकसित हुआ है। इस सृष्टि को सर्वत्र अव्यक्त परमात्मा ने परिपूर्ण किया है, वह सृष्टि में बर्फ में जल के समान व्याप्त है। सभी भूत (प्राणी और पदार्थ) परमात्मा के संकल्प के आधार पर ही उनमें स्थित हैं परन्तु परमात्मा उनमें स्थित नहीं है।
भूत न स्थित मोहि में, देख योग ऐश्वर्य
भूत भावन मम आत्मा, नहिं स्थित हैं भूत।। 9-5।।
यहाँ भगवान श्री कृष्ण चन्द्र कह रहे हैं सब भूत (पदार्थ) मुझ परमात्मा में स्थित नहीं हैं और इससे पहले कह चुके हैं कि सब भूत मुझमें स्थित हैं। परस्पर विरोधी कथन है फिर भी दोनों बातें सत्य हैं। सब भूत मुझमें स्थित हैं अर्थात परमात्मा का ही विस्तार सब भूत हैं। सम्पूर्ण सृष्टि परमात्मा से उत्पन्न होकर परमात्मा में ही लीन हो जाती है। जैसे चन्द्रमा और चाँदनी, सूर्य और उसकी प्रभा एक ही हैं इसी प्रकार परमात्मा और भूत (जगत) एक ही हैं। सभी सृष्टियां परमात्मा में ही कल्पित है। सब भूत मुझमें स्थित नहीं हैं अर्थात आत्मा, पंच महाभूतों से परे है। परमात्मा कर्ता होते हुए भी अक्रिय हैं, अक्रिय होने के कारण वह सभी भूतों और प्रकृति से अलग है। जब सब कुछ एक ही है ‘एकोहम् द्वितीयो नास्ति’ तो फिर कौन किसमें स्थित है, कौन किसमें नहीं है। शरीर, मन, बुद्धि, अहंकार द्वारा परमात्मा को नहीं जाना जा सकता कोई भी भूत आत्मा के अविकारी और अमर स्वरूप को नहीं रखता है। जीव तत्व और परमात्म तत्व एक होते भी अलग अलग हैं। इस विषय को और अधिक गहराई से बताते हुए कहते हैं; मेरी ईश्वरीय योग शक्ति के प्रभाव को देख, भूतों का धारण करने वाला और भूतों को उत्पन्न करने वाला जीवात्मा (परा प्रकृति) भी भूतों में स्थित नहीं है। जीवात्मा भी शरीर में कर्ता भोक्ता होते हुए भी भूतों में स्थित नहीं है। जीव तत्व पंच भूतों से परे है। इसे इस प्रकार भी जान सकते हैं कि अज्ञान है तो जगत है, अज्ञान नष्ट हो गया तो द्वैत नष्ट हो जाता है केवल ब्रह्म ही रहता है।
सर्वत्र विचरता वायु ज्यों, है स्थित आकाश
वैसे ही सब भूत हैं, मम स्थित तू जान।। 9-6।।
जिस प्रकार सर्वत्र विचरने वाला वायु आकाश में ही रहता है, उसी प्रकार सभी भूत मुझमें स्थित हैं। वायु जब डोलता है तब आकाश में अलग आभास होता है, इसी प्रकार जगत ब्रह्म में स्थित है, व्यवहार में ही जगत दिखायी देता है।
सकल भूत कल्पान्त में, लीन प्रकृति मम जान
कल्प आदि में पुन:, मैं रचता, हे पार्थ।। 9-7।।
हे अर्जुन, कल्पान्त (महाप्रलय) में सब भूत मेरी अव्यक्त प्रकृति में लीन होते हैं कल्प के आदि (प्रारम्भ) में उस अव्यक्त प्रकृति से पुन: उनकी रचना होती है।
भूत प्रकृति बल अवश हो, रचता बारम्बार
मैं निज प्रकृति स्वीकार कर, भूत रचे संसार।। 9-8।।
परमात्मा जब व्यक्त प्रकृति को अपनी अव्यक्त (परा) प्रकृति द्वारा स्वीकार करते हैं तब सृष्टि भिन्न भिन्न आकार ग्रहण करने लगती हैं। प्राणी मात्र का विस्तार होने लगता है और भूत समुदाय बार बार मेरे द्वारा अक्रिय तथा कोई सम्बन्ध न रखने पर भी रचा जाता है।
कर्म करूं निष्काम मैं, उदासीन मोहि जान
पार्थ कर्म बांधे नहीं, यही कर्म का ज्ञान।। 9-9।।
इसी प्रकार कर्मों की उत्पत्ति का कारण भी मैं (परमात्मा) हूँ क्योंकि मेरे (परमात्मा के) विक्षोभ के कारण ही कर्म उदय होते हैं। परन्तु उन कर्मों से न मेरा कोई सम्बन्ध है, उन कर्मों से सम्बन्ध न होने के कारण वे कर्म मुझे नहीं बांधते हैं क्योंकि उनमें मेरी कोई आसक्ति नहीं है। उनके प्रति मैं सदा उदासीन हूँ। उत्पत्ति, लय, स्थिति, सभी कर्म मेरी परा प्रकृति व अपरा प्रकृति के संयोग का खेल है। मैं तटस्थ रहता हू, इसे इस प्रकार भी जाना जा सकता है कि परमात्मा की ज्ञान शक्ति व किय्रा शक्ति ही समस्त जगत का कारण है। परमात्मा सदा अक्रिय व तटस्थ है।
मैं अध्यक्ष, साकाश मम, प्रकृति रचा संसार
इसी हेतु इस चक्र में, घूमे जीव सजीव।। 9-10।।
हे अर्जुन, मेरी अध्यक्षता में प्रकृति सभी चर अचर की रचना करती है। सभी प्राणी सृष्टि के पदार्थों का कारण, परमात्मा की परा और अपरा प्रकृति का परिणाम हैं। यही और भी गहराई से जाने तो ज्ञान शक्ति और क्रिया शक्ति ही सबके लिए उत्तरदायी है। इस कारण ही समस्त जगत का आवागमन चक्र निरन्तर चल रहा है।
क्या करेगा जानकर, बहुत जानकर बात
स्थित मैं धारण जगत, एक अंश सुन पार्थ।। 10-42।।
श्री भगवान कहते हैं मेरी विभूतियों का अन्त नहीं है, मुझ अव्यक्त परमात्मा के एक अंश परा प्रकृति ने सम्पूर्ण जगत को धारण किया है। विश्व के कण कण में मैं आत्म रूप में स्थित हूँ, सभी विभूति मेरा ही विस्तार हैं। चर अचर में मैं ही व्याप्त हूँ। सबका कारण भी मैं ही परमात्मा हूँ।
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