भगवदगीता के सत्रहवें अध्याय में श्री भगवान द्वारा सामान्य मनुष्यों की तीन प्रकार की श्रृद्धा एवम तीन प्रकार के यज्ञ, तप, दान कर्म को सुस्पष्ट रूप से बताया है और आत्मतत्त्व अभिलाषी के लिए ऊँ तत् सत् द्वारा निष्काम कर्म के निदेश दिए हैं.
सात्विक-
मान्य शास्त्र विधि यज्ञ जो करना है कर्तव्य
मन निग्रह नहिं चाह फल वह सात्विक हे पार्थ।। 11।
जो शास्त्र विधि से नियत आत्मतत्व परमात्मा के लिए करना कर्तव्य है, यही परम श्रेय का मार्ग है, यही मेरा परम लक्ष्य है, यह जानकर मन को निश्चित करके बिना किसी फल के अर्थात संसार की आसक्ति, इच्छा को छोड़कर किया जाता है वह सात्विक यज्ञ है।
राजस-
दम्भ आचरण के लिए, किया जात जो यज्ञ
यज्ञ जान राजस उसे, फल इच्छा है मूल।। 12।।
परन्तु जहाँ स्वभाव में केवल दम्भ हों और पाखण्ड के लिए अथवा फल की इच्छा के लिए अपनी सांसारिक इच्छा पूर्ति और अपने अहं की तुष्टि के लिए किया जाता है वह राजस यज्ञ है।
तामस-
हीन मन्त्र विधि अन्न के और दक्षिणा पार्थ
श्रद्धा हीन जो यज्ञ है तामस उसको जान।। 13।।
जहाँ स्वभाव ही मूढ़ता है, जहाँ किसी शास्त्र विधि नियम का पालन नहीं होता, किसी मर्यादा का पालन नहीं किया जाता, जहाँ मन्त्रों के बिना, बिना किसी अन्नदान के अर्थात जहाँ से न पशु, पक्षी, न मनुष्य, न गुरूजन, न ब्राह्मण संतुष्ट होते हैं अर्थात जहाँ से कोई जीव संतुष्ट नहीं होता, जहाँ श्रद्धा का पूर्णतया अभाव होता है, मूढ़ स्वभाव वाला, मूढ़ता से किया जाने वाला ऐसा यज्ञ तामस यज्ञ कहा जाता है।
सात्विक शारीरिक-मानसिक तप-
शौच सरलता ब्रह्मचर्य और अहिंसा पार्थ
पूजन गुरू द्विज देवादि का, दैहिक तप कहलात।। 14।।
अब श्री भगवान भिन्न भिन्न प्रकार के तप के बारे में बताते हैं। गुरू सेवा अर्थात अपने गुरू की निष्ठा पूर्वक भक्ति, उनके बताये साधन मार्ग में चलना, उनकी प्रत्येक आज्ञा का पालन करना, उनके दैनिक कार्यों की व्यवस्था देखना आदि, माता पिता की सेवा करना, उनकी आज्ञा का पालन करना, देव पूजन अर्थात देव स्थान, तीर्थ, संतों की स्थली में जाना अर्थात आत्मरत होने के लिए साधन करना, आत्म ज्ञानी महात्मा के दर्शनों के लिए बार बार जाना, शरीर, कर्म और मन की पवित्रता, सब प्राणियों के प्रति सरलता, स्त्री के विषय में पूर्ण संयम रखना और मन वाणी कर्म से किसी को दुःख न देना शरीर सम्बन्धी तप है क्योंकि यह सब शरीर से होते हैं।
वाणी प्रिय हित सत्य जो, नहिं उद्वेग को प्राप्त
स्वाध्याय जप ईश का वाणी तप कहलात।। 15।।
ऐसी वाणी न बोलना जिससे दूसरा उत्तेजित हो अथवा दुःखी हो, दूसरे कल्याण के लिए प्रिय वाणी बोलना, सत्य अर्थात अज्ञान को नष्ट करने वाली वाणी बोलना, निरन्तर शास्त्र अध्ययन एवं प्रभु स्मरण में लगे रहना वाणी सम्बन्धी तप कहलाता है।
मन प्रसन्न अरु सौम्यता, आत्म विनिग्रह मौन
भावों की हो शुद्धता, मानस तप कहलात।। 16।।
मन की प्रसन्नता अर्थात मन का संकल्प, विकल्प से मुक्त होना, जिसका मन ठहर गया हो, इन्द्रियों की ओर नही भागता है, शान्त अर्थात जो आत्मरत होकर आत्म स्थित हो गया है, मौन अर्थात वासना रहित मौन धारण करते हुए मात्र भगवद् चिन्तन करना, इन्द्रियों का मन से निग्रह, यदि कोई विचार उत्पन्न हो तो वह भगवद् विचार हो, ज्ञान हो, सम्पूर्ण जीवों के कल्याण का भाव हो, यह मन सम्बन्धी तप कहा जाता है।
जो चाहे नहिं फल कभी, युक्त ईश के ध्यान
श्रद्धा कृत वह त्रिविधि विधि,सात्विक तप है जान।। 17।।
यह जो तीन प्रकार का शरीर, वाणी और मन सम्बन्धी तप बताया गया है वह फल को न चाहने वाले परमात्मा के साथ निरन्तर जुड़े योगी द्वारा परम श्रद्धा से किया जाता है वह तप सात्विक कहलाता है।
राजस शारीरिक तप-
जो पूजा अरु स्वार्थ वश, दम्भ मान सत्कार
क्षणिक अनिश्चित फल प्रद, तप वह राजस जान।। 18।।
जो तप अपने किसी लालच से अपने सत्कार की इच्छा लेकर अपने अभिमान की संतुष्टि के लिए और लोग मेरी जय जयकार करें अथवा किसी सांसारिक अथवा परमार्थ के स्वार्थ की पूर्ति के लिए किया जाता है जहाँ केवल पाखण्ड दिखायी देता है, जिसका फल मिल भी सकता है और नहीं भी मिलता है और यदि फल मिलता है, तो वह थोड़े समय की संतुष्टि देने वाला होता है ऐसा तप राजस तप कहलाता है।
तामस शारीरिक तप-
तामस दुःख दायक जो देह को और मूढ़ता जन्म
जो हो पर के नाश को तामस तप वह जान।। 19।।
जो मूढ़ता के कारण अथवा अज्ञान से, बुद्धि भ्रम से, हठपूर्वक मन वाणी शरीर को पीड़ा देते हुए किया जाता है अथवा दूसरों के अनिष्ट के लिए किया जाता है अर्थात जबरन एक टांग पर पानी में खड़े रहकर, कांटों में लेटकर, अग्नि प्रज्वलित कर उसके भीतर घेरे में बैठकर, बाल-दाड़ी नोचकर, मुर्दे पर बैठ कर, शरीर को कष्ट पहुंचाते हुए अथवा जबरन मौन धारण कर, मन से दूसरे को बुरा चाहने वाले, अपने हित व दूसरे को अहित के लिए निरीह पशुओं का काटने वाले लोगों का आचरण तामस तप कहलाता है।
सात्विक दान कर्म -
देना ही कर्तव्य है, अनुपकारी को देत
देष काल अरु पात्र हो, दान सात्विक जान।। 20।।
हे अर्जुन, श्रद्धा के अनुसार दान भी तीन प्रकार का होता है। दान देना कर्तव्य है, सत्कर्म है, सब में हरिबोधमयी दृष्टि रख कर, प्राणी मात्र के उपकार के लिए सन्मार्ग से कमाया धन, अन्न अथवा सेवा जो उसके योग्य हो अर्थात जिसे उसकी जरूरत हो जैसे शिवालय में चढ़ाने के लिए ले जाने वाला गंगाजल प्यासे गधे के लिए ज्यादा आवश्यक है, बिना किसी प्रति उपकार के, केवल दयावश यथा समय जब जरूरत हो यथा स्थान जहाँ आवश्यकता हो दिया जाता है, वह दान सात्विक दान कहलाता है।
राजस दान कर्म-
प्रति उपकार की कामना, फल की इच्छा साथ
क्लेश पूर्ण जो दान है, राजस है वह दान।। 21।।
जिस दान को देने में अन्दर से कष्ट हो या इस भावना को ध्यान में रखकर दिया जाय कि इस दान को देने से मेरा यह लाभ होगा, जहाँ फल की इच्छा प्रमुख है, दिखावे के लिए पाखंड, दम्भाचरण, लोक परलोक के हित से दिया जाता है, जरूरतमन्द का ध्यान नहीं रखा जाता कि कब कहाँ देना है, केवल अपना प्रयोजन प्रमुख है ऐसा दान राजस दान कहलाता है।
तामस दान कर्म-
दान बिना सत्कार के, देत निरादर पात्र
देष काल अरु पात्र बिन, तामस उसको जान।। 22।।
जहाँ मूढ़ता हो, बुद्धि भ्रम हो, अज्ञान हो, जहाँ दान में दिया जाने वाला धन, अन्न आदि चोरी का हो या छीना हुआ हो, किसी प्राणी का तिरस्कार कर के, दुत्कारते हुए अथवा जो उस दान का दुरुपयोग करे ऐसे व्यक्ति को दिया जाता है वह दान तामस दान कहलाता है।
आत्मतत्त्व अभिलाषी के कर्म -
ऊँ तत् सत् यह त्रिविध हैं, ब्रह्म नाम कहलात
यज्ञ वेद ब्राह्मण रचे, सृष्टि आदि वह पार्थ।। 23।।
तीन प्रकार की श्रद्धा बताने के पश्चात श्री भगवान कहते हैं हे अर्जुन, श्रद्धा न डिगे और योगक्षेम भली भांति हो इसलिए सदा परमात्मा का स्मरण करना चाहिए। इसे बताते हुए वह कहते हैं, आत्मतत्व रूपी परब्रह्म परमात्मा का नाम ’ऊँ‘ ’तत्‘ ’सत्‘ है। ऊँ परमात्मा का मूल नाम है। स्वर विज्ञानी जानते हैं कि शरीर में इसकी स्थिति भृकुटि के मध्य आज्ञा चक्र में है। परमात्मा सृष्टि से परे है अतः उसका दूसरा नाम तत् है। सत् अर्थात जिससे अज्ञान नष्ट होता है यह परमात्मा का तीसरा नाम है। अव्यक्त रूप में परमात्मा का कोई नाम नहीं है परन्तु उसको जानने, बताने के लिए उसे शब्द (नाम) से बांधा गया है। ऊँ तो परमात्मा का शुद्ध अहंकार है इसलिए वही उसका यथार्थ नाम है। परमात्मा के इन तीन नाम ऊँ तत् सत् को आधार मान धर्म के तत्व को जानने वाले ब्राह्मणों ने उपनिषद, वेद और परमात्मा के निमित्त कर्म का विधान किया है।
यज्ञ दान तप कार्य सब, ओंकार प्रारम्भ
शास्त्र विधि से ही नियत, वेद मंत्र उच्चार।। 24।।
इसलिए ईश्वर के लिए उच्चारण करने वाले जो शास्त्र विधि सम्मत ईश्वर के निमित्त कर्म दान और तप आदि करते हैं वह सदा ऊँ प्रणव का उच्चारण करके अपनी क्रिया आरम्भ करते हैं।
यज्ञ दान तप कार्य सब तत् से कर आरम्भ
जिन्हें नहीं है कामना, मोक्ष भाव को प्राप्त।। 25।।
आत्म स्वरूप परब्रह्म परमात्मा इस जगत से परे है और सबका साक्षी है जो यह जानते हैं वह ‘तत्‘ शब्द का उच्चारण करते हैं। वह तत् स्वरूप परब्रह्म, को उसके निमित्त समस्त कर्म, तप, यज्ञ, दान आदि अर्पण कर निष्काम हो जाते हैं।
सत्य भाव अरु श्रेष्ठ में सत् का लेते नाम
पार्थ उत्तम कर्म में सत् प्रयोग को जान।। 26।।
सत अर्थात जिससे अज्ञान नष्ट होता है, यथार्थ के दर्शन होते हैं, जिसमें कभी कोई परिवर्तन नहीं होता जो निश्चित है यह जानकर कल्याण के लिए, सरल आचरण करते हुए सत् का प्रयोग किया जाता है। इसी प्रकार उत्तम कर्म अर्थात जो कर्म परमात्मा के लिए हैं, जिन कर्मों से परमात्मा में एकता का भाव प्राप्त होता है, के लिए सत् रूपी परमात्मा के सम्बोधन का प्रयोग किया जाता है।
यज्ञ कर्म तप दान में स्थित सत् को जान
यज्ञ निमित्त जो कर्म है सत् भी उसको जान।। 27।।
हे अर्जुन, परमात्मा के निमित्त कर्म, दान एवं तप में जो स्थिति है वह भी सत् कही जाती है। इसलिए सत् नाम को परमात्मा का नाम जान और सत् नाम की विलक्षण शक्ति को स्वीकार कर और पहचान कर, परमात्मा के निमित्त कर्म के साथ सदा सत् शब्द का प्रयोग करना चाहिए।
क्योंकि श्रद्धा विहीन कर्म चाहे वह हवन, दान, तप हो सदा असत् हैं अर्थात अज्ञान हैं, मूढ़ता है और मूढ़ता से न संसार में कुछ प्राप्त है और न मृत्यु के बाद कुछ प्राप्त होता है.
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आप गीता यज्ञ की जानकारी देवें।जो भगवतगीता के प्रचार के बाद किया जाता है
ReplyDeleteमहेशजी, कृपया अपने प्रश्न को खुलकर लिखें.
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