Saturday, November 19, 2011

तीन गुण सत्त्व, रज, तम और गुणातीत


 महत् नाम वाली परमात्मा की अपराशक्ति जो न सत् है न असत अपने गुण परिणाम में अद्भुत अनिवर्चनीय है और अपने कार्यों के कारण सत्त्व, रज, तम गुणों से भासित है. भगवद्गीता के  चौदहवाँ अध्याय में श्री भगवान द्वारा भगवान की माया के  तीन गुण सत्त्व, रज, तम के जन्म, वृद्धि, प्रभाव आदि और गुणातीत स्थिति का सरल व सुस्पष्ट विवेचन किया है.

सत्त्व, रज, तम का जन्म 

प्रकृति अर्थात ज्ञान शक्ति और क्रिया शक्ति के भिन्न भिन्न मात्रा में कार्य करने से गुण उत्पन्न होते हैंइन्हें तीन भागों में विभाजित किया हैयह हैं सत्त्व, रज, तमसत्त्व में ज्ञान शक्ति अधिक होती है, रज में क्रिया शक्ति अधिक होती है और तम में ज्ञान शक्ति लगभग लुप्त होती है, क्रिया शक्ति अति अल्प होती हैयह तीनों गुण अविनाशी अव्यक्त आत्मतत्व परमात्मा को इस शरीर में मोहित कर बांधते हैंप्रकृति के गुणों के कारण ही आत्मा में जीव भाव उत्पन्न होता है


सत्त्व का प्रभाव

सत्त्वगुण अमल प्रकाश मय और रहित विकार
सुख संग बांधे ज्ञान संग जान तत्व निष्पाप।। 6।।

प्रकृति (माया) किस प्रकार अविनाशी आत्मा को अपने जाल में फंसाती हैसतोगुण सुख और ज्ञान के माध्यम में अविनाशी आत्मा को फंसाता है अर्थात वह ज्ञान देता है और ज्ञान का अहंकार भी उत्पन्न करता है और ज्ञानी होने का अहंकार उसे मिथ्या सुख से भ्रमित कर देता हैवह सच्चे ज्ञान सच्चे आनन्द को भूल जाता है

रज  का प्रभाव

तृष्णा से उत्पन्न हो राग रूप रज पार्थ
वह बांधे इस जीव को कर्म संग संसार ।। 7।।

रजोगुण सदा आत्मा को बहलाता है क्योंकि राग रूप रजोगुण का जन्म कामना और आसक्ति से होता है और संसार के विभिन्न रूपों की कामना उनमें आसक्ति प्राप्त होने पर बढ़ती ही जाती हैपहले थोड़ा मिला उसका सुख उठाया, फिर ज्यादा की इच्छा हुयी, आसक्ति बढ़ी, उसके लिए कार्य बड़े (कर्म की इच्छा बढ़ी) और फल से सम्बन्ध बड़ा, इस प्रकार देह स्थित आत्मा को जीव भाव की प्राप्ति होती है और वह जीवात्मा शरीर से बंध जाता है

तम का प्रभाव

सब देहि मोहित करे तम जन्मे अज्ञान
वह बांधे इस देहि को, निद्रा आलस्य, प्रमाद।। 8।।

तमोगुण अज्ञान से उत्पन्न होता है, यह आत्मा को पूर्ण रूपेण भ्रम में डाल देता है, वह अपना स्वरूप पूर्णतया भूल कर जीव भाव को प्राप्त इस शरीर को ही अपना स्थान, अपना स्वरूप मान बैठती हैप्रमाद, आलस्य और नींद इस तमोगुण के हथियार हैं, इनके द्वारा मन मूढ़ बन जाता है, बुद्धि भ्रमित हो जाती है, कर्म की इच्छा नहीं होतीउसकी बुद्धि कुम्भकर्ण जैसी हो जाती है जिसने तपस्या का फल छह माह की नींद मांगीनीद को ही वह जीवन की सर्वोत्तम निधि मानता हैइसी में आनन्द अनुभव करता है

सत्त्व लगाता सुख में, रज लगाये कर्म
तम रत करे प्रमाद में, घेर ज्ञान को पार्थ।। 9।।

सतोगुण जीव में सुख का भाव उत्पन्न करता हैरजोगुण भी कामना और आसक्ति के माध्यम से सुख प्रदान करते हुए उसे अधिक-अधिक कर्म में लगाता है और तमोगुण उसके ज्ञान को ढक कर प्रमाद में लगाता है, उसे अज्ञान में सुख मिलता हैपरन्तु यह सभी मिथ्या सुख क्रमशः अहंकार वश, आसक्ति वश और अज्ञान वश उत्पन्न होते हैं

सत्त्व रज तम की वृद्धि

रज तम दाबे सत्त्व बढ़े, सत्त्व तम दब रज जान
वैसे ही सत्त्व रज दबा, तम बढ़ता हे पार्थ।। 10।।

यदि रज और तम को दबा दिया जाय तो सतोगुण बढ़ता हैसतोगुण और तमोगुण को दबा कर रजोगुण बढ़ता है तथा सत्त्व और रज को दबाकर तमोगुण बढ़ता है

सत्त्व की वृद्धि का परिणाम

सभी द्वार अरु देह में बाढ़े ज्ञान प्रकाश
गुडाकेश तेहि काल में, सत्व बढ़ा है जान।। 11।।

सभी जीवों में तीनों गुण भिन्न भिन्न मात्रा में होते हैंकर्म प्रारब्ध और परिस्थिति वश गुणों की मात्रा में अन्तर भी आता हैजब देह में समस्त इन्द्रियों और मन में ज्ञान और विवेकशक्ति उत्पन्न होती है तो सतोगुण बड़ा होता है

रज तम की वृद्धि का परिणाम

हे अर्जुन रज से बढ़े, प्रवृति कर्म आरम्भ
विषय भोग की लालसा लोभ अशान्ति का जन्म।। 12।।
हे अर्जुन जब तम बढ़े, अप्रकाश अप्रवृति का जन्म
प्रमाद, मोह उत्पन्न हों, हे कुरुनन्दन श्रेष्ठ।। 13।।

जब रजोगुण बढ़ा होता है तो उस समय लोभ और सकाम कर्म करने की इच्छा उत्पन्न होती है और जीव कर्म में लग जाता हैफिर इच्छा पूरी हुयी तो उसकी पूर्ति के लिए अधिक से अधिक कर्म और विषय भोग की लालसा भी उत्पन्न होती है और इच्छा पूरी नहीं हुयी या भोग प्राप्त नही हुए तो अशान्ति उत्पन्न होती हैतमोगुण के बढ़ने पर मन, बुद्धि में अज्ञान छा जाता है, कर्म करने की भी इच्छा नहीं होतीप्रमाद, आलस्य, निद्रा यह सब उत्पन्न होते हैं

सत्त्व रज तम की वृद्धि में मृत्यु

सत्त्व बढ़ा हो पार्थ जब, यह नर मृत्यु को प्राप्त
अमल लोक को प्राप्त हो, श्रेष्ठ कर्म रत प्राप्त।। 14।।

बढ़े रजोगुण मृत्यु हो, कर्म संगिन में जन्म
मूढ़ योनि उत्पन्न हो, मरे तमोगुण काल।। 15।।

जब मनुष्य सत्वगुण की वृद्धि में मृत्यु को प्राप्त होता है अर्थात जब देह त्यागता हैं तो ज्ञान में देह बुद्धि होने के कारण, श्रेष्ठ आचरण करने वाले विद्यावान और योगियों के घर में जन्म लेता हैयोग भ्रष्ट पुरुष का जन्म इसी कारण होता हैरजोगुण की वृद्धि होने पर मति किसी खास कर्म अथवा उसके फल भोग आदि में होती है अतः मृत्यु के बाद वह आसक्ति वाले रजोगुणी परिवार में जन्म लेता है और तमोगुण के बढ़ने पर जब मृत्यु होती है तो घोर तमस (अज्ञान) के कारण मति मूढ़ हो जाती है अतः अगला जन्म मूढ़ योनियों में होता है

सत्त्व रज तम के फल का परिणाम

श्रेष्ठ कर्म का फल सदा, सात्विक, निर्मल जान
राजस का फल दुःख है और तमस अज्ञान।। 16।।

सतोगुण से सुकृत’ (श्रेष्ठ आचरण) का जन्म होता है परिणामतः ज्ञान और निर्मल फल की प्राप्ति होती हैरजोगुण से उत्पन्न कर्म का अन्तिम परिणाम अशान्ति और दुःख है और तमोगुण मूढ़ता को जन्म देता है

सत्व देता ज्ञान को, रज गुण देता लोभ
तमगुण होत प्रमाद मोह, अरु देता अज्ञान।। 17।।

सत्वगुण से ज्ञान उत्पन्न होता है (विशुद्ध आत्मतत्व सतोगुण के पाश में बंधा जीवात्मा अहंकार युक्त रहता है) रजोगुण लोभ को जन्म देता है और तमोगुण से प्रमाद, मोह और मूढ़ता उत्पन्न होते हैं

सत्त्व रज तम की वृद्धि में मृत्यु के पश्चात गति
सत्व स्थित ऊर्ध्व गती राजस स्थित मध्य
जघन्य गुण रत तामसी अधम गती को प्राप्त।। 18।।

सत्वगुण में स्थित पुरुष ऊर्ध्व गति को प्राप्त होते हैं अर्थात योगभ्रष्ट और विद्या विनय सम्पन्न घरों में जन्म लेता हैरजोगुण में स्थित पुरुष मध्य गति को प्राप्त होते हैं अर्थात सकामी, लोभी, सांसारिक लोगों के घर में जन्म लेते हैं और तमोगुणी पुरुष नीच गति को प्राप्त होते हैं अर्थात मूढ़ योनियों में जन्म लेते हैं

गुणातीत

कर्ता गुण नहिं अन्य कोउ दृष्टा दरसे काल
तीन गुणों से अति परे परम तत्व का ज्ञान।। 19।।

जिस समय मनुष्य दृष्टा भाव से स्थित रहता है और सत्त्व, रज, तम इन तीन गुणों को कर्ता देखता है, उस समय साक्षी भाव से कर्मों के कर्तापन से निर्लिप्त अर्थात अहंकार से मुक्त होकर परम स्थिति को तत्व से जानता है


गुणातीत पुरुष के लक्षण

प्रकाश प्रवृत्ति अरु मोह पा, करे नहीं जो द्वेष
उभय जबहिं निवृत्त हो, नहिं इच्छा हो शेष।। 22।।

आत्म स्वरूप में स्थित, सदा साक्षी भाव से देखता हुआ सतोगुण रूपी ज्ञान और उसके अहंकार, रजोगुण की कार्य प्रवृत्ति और तमोगुण के भ्रम मूढ़ता भाव यदि आते हैं तो उनमें यदि प्रवृत्त होता है तो बिना किसी आसक्ति के और द्वेष के और यदि उन त्रिगुण भावों से अलग होता है तो उनकी कोई कामना नहीं करता क्योंकि उसे कर्म का अथवा अपने गुणों का कोई अभिमान नहीं होता, समुद्र के जल की तरह स्थित रहता है

साक्षी स्थित वह पुरुष, नहि विचलित गुण माहि
गुण गुण में हीं बरतते, थिर मति स्थित एक।। 23।।

वह उदासीनवत् अर्थात सुख-दुःख, हानि-लाभ में समान रहता हुआ किसी भी गुण से विचलित नहीं किया जाता है क्योंकि वह जानता है कि प्रकृति के गुण ही, गुण और कर्म का कारण हैं, वह यह जानकर गुणों के खेल को देखता रहता हैजिस प्रकार आकाश, वायु से प्रभावित नहीं होता उसी प्रकार वह आत्मरत पुरुष गुणों से प्रभावित नहीं होता और सदा आत्म स्थित रहता है और इस परम स्थिति से कभी भी विचलित नहीं होता

....................................................................................................................

1 comment:

  1. namaste can u please tell me the publishing date or year of this text. where has this published

    ReplyDelete