Tuesday, June 12, 2012

यज्ञ – प्रो बसन्त


                             
परमात्मा के निमित्त किया कोई भी कार्य यज्ञ कहा जाता है. परमात्मा के निमित्त किये कार्य से संस्कार पैदा नहीं होते न कर्म बंधन होता है. भगवदगीता के चौथे अध्याय में भगवान श्री कृष्ण द्वारा अर्जुन को उपदेश देते हुए विस्तार पूर्वक विभिन्न प्रकार के यज्ञों को बताया गया है.
अर्पण ही ब्रह्म है, हवि ब्रह्म है, अग्नि ब्रह्म है, आहुति ब्रह्म है, कर्म रूपी समाधि भी ब्रह्म है और जिसे प्राप्त किया जाना है वह भी ब्रह्म ही है। यज्ञ परब्रह्म स्वरूप माना गया है। इस सृष्टि से हमें जो भी प्राप्त है, जिसे अर्पण किया जा रहा है, जिसके द्वारा हो रहा है, वह सब ब्रह्म स्वरूप है अर्थात सृष्टि का कण कण, प्रत्येक क्रिया में जो ब्रह्म भाव रखता है वह ब्रह्म को ही पाता है अर्थात ब्रह्म स्वरूप हो जाता है ।
कर्म योगी देव यज्ञ का अनुष्ठान करते हैं तथा अन्य ज्ञान योगी ब्रह्म अग्नि में यज्ञ द्वारा यज्ञ का हवन करते हैं। देव पूजन उसे कहते हैं जिसमें योग द्वारा अधिदैव अर्थात जीवात्मा को जानने का प्रयास किया जाता है। कई योगी ब्रह्म अग्नि में आत्मा को आत्मा में हवन करते हैं अर्थात अधियज्ञ (परमात्मा) का पूजन करते हैं।
कई योगी इन्द्रियों के विषयों को रोककर अर्थात इन्द्रियों को संयमित कर हवन करते हैं, अन्य योगी शब्दादि विषयों को इन्द्रिय रूप अग्नि में हवन करते है अर्थात मन से इन्द्रिय विषयों को रोकते हैं
कई योगी सभी इन्द्रियों की क्रियाओं एवं प्राण क्रियाओं को एक करते हैं अर्थात  इन्द्रियों और प्राण को वश में करते हैं, उन्हें निष्क्रिय करते हैं
इन सभी वृत्तियों को करने से ज्ञान प्रकट होता है ज्ञान के द्वारा आत्म संयम योगाग्नि प्रज्वलित कर सम्पूर्ण विषयों की आहुति देते हुए आत्म यज्ञ करते हैं।
इस प्रकार भिन्न भिन्न योगी द्रव्य यज्ञ तप यज्ञ तथा दूसरे योग यज्ञ करने वाले है और कई तीक्ष्णव्रती होकर योग करते हैं अर्थात शब्द में शब्द का हवन करते है। इस प्रकार यह सभी कुशल और यत्नशील योगाभ्यासी पुरुष जीव बुद्धि का आत्म स्वरूप में हवन करते हैं।
द्रव्य यज्ञ- इस सृष्टि से जो कुछ भी हमें प्राप्त है उसे ईश्वर को अर्पित कर्र ग्रहण करना.
तप यज्ञ- जप कहाँ से हो रहा है इसे देखना तप यज्ञ है.
योग यज्ञ- प्रत्येक कर्म को ईश्वर के लिया कर्म समझ निपुणता से करना योग यज्ञ है.
तीक्ष्ण वृती- यम नियम संयम आदि कठोर शारीरिक और मानसिक क्रियाओं द्वारा मन को निग्रह करने का प्रयास. शम, दम, उपरति, तितीक्षा, समाधान, श्रद्धा.
मन को संसार से रोकना शम है.
बाह्य इन्द्रियों को रोकना दम है.
निवृत्त की गयी इन्द्रियों भटकने  देना उपरति है.
सर्दी-गर्मी, सुख-दुःख, हानि-लाभ, मान अपमान को शरीर धर्म मानकरसरलता से सह लेना तितीक्षा है.
रोके हुए मन को आत्म चिन्तन में लगाना समाधान है.
कई योगी अपान वायु में प्राण वायु का हवन करते हैं जैसे अनुलोम विलोम से सम्बंधित श्वास क्रिया तथा कई प्राण वायु में अपान वायु का हवन करते हैं जैसे गुदा संकुचन अथवा सिद्धासन। कई दोनों प्रकार की वायु, प्राण और अपान को रोककर प्राणों को प्राण में हवन करते हैं जैसे रेचक और कुम्भक प्राणायाम.
कई सब प्रकार के आहार को जीतकर अर्थात नियमित आहार करने वाले प्राण वायु में प्राण वायु का हवन करते हैं अर्थात प्राण को पुष्ट करते हैं. इस प्रकार यज्ञों द्वारा काम क्रोध एवं अज्ञान रूपी पाप का नाश करने वाले सभी; यज्ञ को जानने वाले हैं अर्थात ज्ञान से परमात्मा को जान लेते हैं।
यज्ञ से बचे हुए अमृत का अनुभव करने वाले पर ब्रह्म परमात्मा को प्राप्त होते हैं अर्थात यज्ञ क्रिया के परिणाम स्वरूप जो बचता है वह ज्ञान ब्रह्म स्वरूप है। इस ज्ञान रूपी अमृत को पीकर वह योगी तृप्त और आत्म स्थित हो जाते हैं परन्तु जो यज्ञाचरण नहीं करते उनको न इस लोक में कुछ हाथ लगता है न परलोक में।
इस प्रकार बहुत प्रकार की यज्ञ विधियां वेद में कही हैं। तू यह जान ले कि यह यज्ञ विधियां कर्म से ही उत्पन्न होती हैं। इस बात को जानकर कर्म की बाधा से जीव  मुक्त हो जाता है।
द्रव्यमय यज्ञ की अपेक्षा ज्ञान यज्ञ अत्यन्त श्रेष्ठ है। द्रव्यमय यज्ञ सकाम यज्ञ हैं और अधिक से अधिक स्वर्ग को देने वाले हैं परन्तु ज्ञान यज्ञ द्वारा योगी कर्म बन्धन से छुटकारा पा जाता है और परम गति को प्राप्त होता है। सभी कर्म ज्ञान में समाप्त हो जाते हैं। ज्ञान से ही आत्म तृप्ति होती है और कोई कर्म अवशेष नहीं रहता।
प्रज्ज्वलित अग्नि सभी काष्ठ को भस्म कर देती है उसी प्रकार ज्ञानाग्नि सभी कर्म फलों को; उनकी आसक्ति को भस्म कर देती है।
इस संसार में ज्ञान के समान पवित्र करने वाला वास्तव में कुछ भी नहीं है क्योंकि जल, अग्नि आदि से यदि किसी मनुष्य अथवा वस्तु को पवित्र किया जाय तो वह शुद्धता और पवित्रता थोड़े समय के लिए ही होती है, जबकि ज्ञान से जो मनुष्य पवित्र हो जाय वह पवित्रता सदैव के लिए हो जाती है। ज्ञान ही अमृत है और इस ज्ञान को लम्बे समय तक योगाभ्यासी पुरुष अपने आप अपनी आत्मा में प्राप्त करता है क्योंकि आत्मा ही अक्षय ज्ञान का श्रोत है।
जिसने अपनी इन्द्रियों का वश में कर लिया है तथा निरन्तर उन्हें वशमें रखता है, जो निरन्तर आत्म ज्ञान में तथा उसके उपायों में श्रद्धा रखता है जैसे गुरू, शास्त्र, संत आदि में। ऐसा मनुष्य उस अक्षय ज्ञान को प्राप्त होता है तथा ज्ञान को प्राप्त होते ही परम शान्ति को प्राप्त होता है। ज्ञान प्राप्त होने के बाद उसका मन नहीं भटकता, इन्द्रियों के विषय उसे आकर्षित नहीं करते, लोभ मोह से वह दूर हो जाता है तथा निरन्तर ज्ञान की पूर्णता में रमता हुआ आनन्द को प्राप्त होता है।

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Tuesday, February 14, 2012

ज्ञान गीता - मोक्ष और ब्रह्मत्व - प्रो. बसन्त जोशी


मोक्ष और ब्रह्मत्व - अनेक जन्मों का सिद्ध पुरुष परम सिद्धि को प्राप्त होता है.

वैज्ञानिक भाषा में कहा जाया तो चित्त की समस्त वृत्तियों का निरोध मोक्ष है अर्थात मस्तिष्क में उत्पन्न होने वाली कामनाओं का पूर्णरूपेण शान्त और स्थिर हो जाना मोक्ष है. महात्मा बुद्ध ने इसे शून्य और अंतिम स्थिति माना है. महर्षि पतंजलि चित्त वृत्ति निरोध को ईश्वर से जुड़ना मानते हुए कहते हैं कि इसके बाद ही परमतत्त्व का बोध होता है. इससे स्पष्ट है कि ईशत्व (परमतत्त्व) और मोक्ष दो अलग अलग स्थितियाँ हैं, इसमें मोक्ष अंतिम से पहिला पड़ाव है और ईशत्व अंतिम पड़ाव. चित्त की समस्त वृत्तियों के रुकने पर शरीर में फैली चेतना स्थिर  हो जाती है और चैतन्य और शरीर दोनों अलग अलग हो जाते हैं. शरीर स्थिर हो जाता है और चैतन्य जो पूर्ण ज्ञानमय है वह स्वयं को भी देखता है और शरीर को भी जानता है. चैतन्य प्रकट होने पर  मन बुद्धि अहँकार ज्ञानेन्द्रिय प्राण और प्रकृति आदि का सूक्ष्म शरीर नष्ट हो जाता है और इसका स्थान भी चैतन्यमय शरीर ले लेता है. इसे समाधि भी कहते हैं. समाधि टूटने पर पुनः सूक्ष्म शरीर का निर्माण हो जाता है क्योंकि पूर्ण ईशत्व उपलब्ध नहीं हुआ होता है. पूर्ण ईशत्व, चैतन्य निर्विकल्प समाधि जिसे निर्बीज समाधि कहा है के लगातार सात दिन तक सिद्ध होने पर ही उपलब्ध होता है, इस समाधि प्रयास में समाधि प्राप्त योगियों को अनेक वर्ष और अनेक जन्म लग जाते हैं. इसके लिए समाधि के स्वरूपों को जानना होगा.
वितार्कानुगत
विचारानुगत
आनंदानुगत
अस्मितानुगत - विवेक ख्याति
असम्प्रज्ञात अथवा निर्बीज समाधि
वितार्कानुगत समाधि में साधक में जिज्ञासा का भाव होता है, वह ईश्वर को खोजता है, तर्क वितर्क उसके मन में चलते हैं, इन तर्क वितर्को से वह ईश्वर के भिन्न भिन्न सुने समझे रूपों को अथवा उसके निराकार स्वरूप को जानने का प्रयास करता है और इनको अनुभव भी करता है.
विचारानुगत समाधि में साधक के ईश्वर संबंधी विचार पुष्ट हो जाते हैं. विचारों से वह ईश्वर के सत्य स्वरूप को समझ जाता है. विचार पुष्ट हो जाता है और उसका चिन्तन बढने लगता है. यहाँ उसे आनन्द की यदा कदा झलक मिलती है. यहाँ वह विचारों में अनुभव करता है कि ईश्वर का उसके अंदर निवास है, वह ईश्वर का स्वरूप है, यह विचार पुष्ट हो जाता है.इसे प्रति बोध कहा जा सकता है.
आनंदानुगत समाधि में विचार शान्त हो जाते हैं. गहरी नीद जैसी यह अवस्था होती है. साधक परम शान्ति को अनुभव करता है परन्तु यहाँ अहं वृत्ति रहती है.
अस्मितानुगत समाधि में साधक को अपने स्वरूप का बोध होता है. यहाँ वह जानता है कि वही ब्रह्म है, वही ईश्वर है. दोनों एक हैं परन्तु यहाँ भी सूक्ष्म बीज रूप में अहँकार शेष रह जाता है. यहाँ वितर्क, विचार और आनन्द का लोप हो जाता है. यहाँ अस्मि वृत्ति रहती है.

असम्प्रज्ञात अथवा निर्बीज समाधि इसमें निरति निराधार हो जाती है. यह निरालम्ब अवस्था है. यहाँ योगी ईशत्व  को प्राप्त होता है. यहाँ मस्तिष्क की क्षमता ब्रह्मांडीय हो जाती है. इसे यह भी कहा जा सकता है कि मस्तिष्क में सम्पूर्ण ब्रह्मांडीय शक्तियों का स्वाभविक प्रवेश हो जाता है. इसे COSMIC MIND की स्थिति कह सकते हैं. शुद्ध चैतन्य जो ज्ञान स्वरूप है वह प्रकट हो जाता है. यह अवस्था ही ईशत्व है, ब्रह्मत्व है.
यहाँ यह भी स्पष्ट करना जरूरी है कुछ विरले साधक ही
आनंदानुगत समाधि तक पहुँच पाते हैं और उसी को मोक्ष समझकर संतुष्ट हो जाते हैं. इनमें से कुछ विरले महात्मा अस्मितानुगत समाधि तक पहुँच पाते हैं, यहाँ अनेक सिद्धियाँ उनमें आ जाती हैं.
यहाँ से पूर्ण असम्प्रज्ञात अथवा निर्बीज समाधि समाधि का मार्ग बहुत कठिन है. इसे पार करने में एक जन्म से लेकर अनेक युग  भी लग जाते हैं. शंकराचार्य ने स्पष्ट लिखा है कि जो महापुरुष निर्विकल्प समाधि में स्थित हो गये हैं उन के अंदर भी जन्म जन्मांतर की अतृप्त वासनाएँ देखी जाती हैं.
ये निर्विकल्पाख्यसमाधिनिश्चला
स्तानन्ततरानन्तभवा हि वासनाः
बंध और मोक्ष दोनों बुद्धि के गुण हैं और ब्रह्म एक अविनाशी अद्वितीय चेतन्य ज्ञान स्वरूप है. इस बात की पुष्टि करते हुए भगवद्गीता कहती है-
अनेक जन्मों का सिद्ध पुरुष परम सिद्धि को प्राप्त होता है.


Monday, January 30, 2012

ईश्वर का रास्ता-Prof. Basant



                              ईश्वर का रास्ता
जब किसी मनष्य को अनजान जगह और उसका रास्ता मालूम नहीं होता तो वह अनेक व्यक्तियों से जगह और रास्ते के बारे में पूछता है. इसी प्रकार असाध्य रोग से ग्रसित व्यक्ति अपने इलाज के लिए अनेक चिकित्सकों के पास जाता है और अनेकों से रोग के निदान का उपाय पूछता है. इसी प्रकार परमात्मा की ओर जाने वाला रास्ता भी अनजान है. अतः इस मार्ग के साधक को भी अनेक पथ प्रदर्शक ज्ञानियों और ग्रंथों का सहारा लेना जरूरी है. विडम्बना है कि गुरुडम के कारण आधुनिक गुरु और धर्मोपदेशक कहते हैं केवल मेरा धर्म, मेरा रास्ता ही सही है. इस प्रकार चेलों की जमात और फौज खड़ी कर लेते हैं.
अंध अंध दे ज्ञान.
वेदान्त और भगवद्गीता का स्पष्ट निदेश है कि ईश प्रप्ति के मार्ग में आप जितने चाहें उतने तरीके या अधिक से अधिक तरीके जो आपको रुचिकर लगें, आपके स्वाभाव के अनुकूल हों अपना सकते हैं. महात्मा बुद्ध, बोध से पहले अनेक ज्ञानी साधकों के पास गये थे. भगवान दतात्रेय के २४ गुरु थे. रामकृष्ण परमहंस के भी अनेक गुरु थे आदि.
हिंदू, मुसलमान, ईसाई आदि होना सरल है क्योंकि जन्म से आपको यह अधिकार मिल जाता है परन्तु बोध का रास्ता तो स्वयं खोजना होगा और जब तक स्वतंत्र सोच नहीं होगी तब तक आप बोध से कोसों दूर हैं और बिना बोध के परमतत्त्व प्राप्त नहीं होता.

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Saturday, December 17, 2011

बोध के साधन- धर्म चाय की चुस्की नहीं है, धर्म के लिए ऑक्सिजन की तरह सतत व्यवहार की आवश्यकता है.-Prof.Basant


                            बोध के साधन
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1.अष्टांग योग-शारीरिक और मानसिक तप द्वारा परम बोध को उपलब्ध होना. शरीर प्राण और बुद्धि के संतुलन से बोध की प्राप्ति की जाती है.
2.ज्ञान योग- परम बोध को सूक्ष्म बुद्धि द्वारा जानना. संसार में फैली बुद्धि को एक विचार में केंद्रित कर बुद्धि को सूक्ष्म किया जाता है.
3.कर्म योग अनासक्त स्वाभविक कर्म से परम बोध को उपलब्ध होना.
4.भक्ति योग ईश्वर के प्रति अनन्य प्रेम, अनुराग द्वारा भावातीत होना.
5.राज योग- इन्द्रियों, मन बुद्धि को स्थिर करना. इस प्रकार मस्तिष्क को नियंत्रित करना. ज्ञान योग और राज योग एक ही हैं.
6.लय योग अष्टांग योग अथवा हठ योग द्वारा कुण्डलिनी जागरण करना और उसे विभिन्न बंद लगाकर आज्ञा अथवा सहस्त्रार तक पहुँचाना.
7.अहँकार योग- अपने  क्षुद्र मैं को परमात्मा का मैं मानना और तदनुसार आचरण करना. अपने लिए जीव भाव न रखकर ब्रह्म भाव रखना. अपने मैं को विराट करना.
8.सेवा योग- हरी बोधमयी दृष्टि रखते हुए सभी जड़ चेतन की सेवा करना. सबका कल्याण करना. यही शिव योग भी है.
9.क्रिया योग- ज्ञान योग और लय योग का मिश्रण है. महर्षि पतंजलि ने तप स्वाध्याय और ईश्वर प्रणिधान को क्रिया योग का अंग माना है.
10.प्राण योग प्राण और अपान की गति रोककर अथवा प्राण की गति सम कर कुण्डलिनी जागरण किया जाता है.
11.मृत्यु योग- शरीर से बाहर निकलने की क्रिया का अभ्यास मृत्यु योग है.
12.शब्द योग- ईश्वर को प्रिय नाम से पुकारना. भगवद्गीता ॐ को ईश्वर का नाम मानती है. ॐ का व्यवहार में स्मरण शब्द योग है.
13.साक्षी योग वेदान्त, भगवद्गीता ने इसे सर्वोत्तम और सहज योग स्वीकारा है. महावीर स्वामी का सूत्र है- असुत्तो मुनि. आज विपश्यना अतवा विपासना के नाम से इसी योग को सिखाया जाता है.

सहज योग,समता योग आदि अनेक योग वेद, वेदान्त, भगवद्गीता, कपिल, पतंजलि और अनेक संतों द्वारा प्रतिपादित और विकसित किये. इन सभी में बुद्धि, प्राण और शरीर की अलग अलग क्रिया बतायी गयी है परन्तु अंतिम विकल्प केवल बुद्धि है. शरीर और प्राण साधना से आगे का मार्ग सरल हो जाता है और बुद्धि को सूक्ष्म करने में मदद मिलती है.
संक्षेप में यह सब योग बुद्धि योग के ही भिन्न भिन्न स्वरूप हैं. किसी में शारीरिक क्रिया महत्वपूर्ण है तो किसी में बौद्धिक क्रिया और किसी में दोनों का संतुलन परन्तु बुद्धि सभी योग साधनों में महत्वपूर्ण है और बिना बुद्धि के कोई साधन नहीं हो सकता. अपने स्वभाव, शरीर, प्राण और बुद्धि के अनुसार किसी भी योग जो सरल लगे को साधक अपना सकता है. कृपया यह न भूलें कि धर्म चाय की चुस्की नहीं है, धर्म के लिए ऑक्सिजन की तरह सतत योग साधन की आवश्यकता है.

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Monday, December 12, 2011

चेतना की गीता - Prof.Basant


               चेतना
चित्त वृत्ति चेतना कहलाती है.यह चित्त में जन्म लेती है. चित्त जड़ होता है, उस जड़ से चेतन का का उद्भव व प्रसारण होता है.
जड़ ही अज्ञान की अनंतिम स्थिति है और यह ज्ञान का बीज रूप है अर्थात जड़ अवस्था में ज्ञान बीज रूप होता है. यह ज्ञान जब स्वप्नवत होता है तो चित्त में उसकी छाया पड़ती है  और उसमें हलचल मच जाती है, वह जाग्रत हो उठता है. जिस प्रकृति का चित्त (brain or cell) वैसी हलचल. इसलिए  मानव के विकास की कथा, उसके संघात पिंड-CNS- विकसित होने की बात जीवों के विकास की सुदीर्घ श्रृंखला की एक कडी है जैसा cns वैसा चित्त. यहाँ चित्त की हलचल  विज्ञानमय कोश का विस्तार करती है और चेतना का विस्तार होता जाता है. यहीं द्वेत जन्म लेता है, यहीं मैं जन्म लेता है, संसार और भ्रम यहाँ जन्मते है दूसरे शब्दों में संकल्प द्वारा स्थूलता को प्राप्त होता है.
जब शरीर की नाड़ियों में प्राण वायु संचरण करने लगता है तब तत्काल ही वृत्ति को धारण करने वाला चित्त उत्पन्न होता है. किन्तु जब शरीर की नाड़ियों में प्राण वायु संचरण नहीं करता तब चित्त उत्पन्न नहीं होता है और चेतना का कोई अस्तित्व नहीं होता. ज्ञान से चेतना रूपी तरंग का उत्थान होता है. जीव में यह जीव ज्ञान से उदय होकर चारों ओर फैल जाती है. इसलिए इसे विकृति माना है.
वास्तव में यह सत्व गुण का प्रसार है जिसके कारण उससे मिले गुणों के आधार पर सुख दुःख आदि संवेदनाओ का अनुभव होता है. विभिन्न चेष्टाऐं होती हैं.यह मन और बुद्धि का विस्तार करती है. इसके कारण ही अहम् जाग्रत होता है. इसके द्वारा ही रज तम को गौंण करने पर यह ज्ञान के उच्च धरातल का मार्ग प्रशस्त करती है. सरल रूप में इसे ज्ञान की छाया शक्ति कहा जा सकता है.