Saturday, December 3, 2011

स्वप्रसारित ज्ञान और केंद्र प्रसारित ज्ञान

स्वप्रसारित ज्ञान अनादि सत्ता है और केंद्र प्रसारित ज्ञान मस्तिस्क से प्रसारित होने वाला ज्ञान है. केंद्र प्रसारित ज्ञान मृत्यु के साथ बीज रूप में स्वप्रसारित ज्ञान में लीन हो जाता है, पुनः सुसुप्ति से स्वप्न और जाग्रत अवस्था की तरह जन्म लेता है. स्व प्रसारित ज्ञान सर्वत्र है. केंद्र प्रसारित ज्ञान देह बद्ध है. केंद्र प्रसारित ज्ञान के कारण अहँकार की सत्ता है. स्व प्रसारित ज्ञान परमात्मतत्त्व है. जिस प्रकार केंद्र प्रसारित ज्ञान देह का भासित ईश्वर है उसी प्रकार स्व प्रसारित ज्ञान सृष्टि का ईश्वर है. स्व प्रसारित ज्ञान का जब एक अंश अपरा (जड़ )प्रकृति को स्वीकार कर लेता है तो केंद्र प्रसारित ज्ञान का उदय होता है और वह प्रजापति होकर शरीर का कारण दिखायी देता है. स्व प्रसारित ज्ञान साक्षी रूप में देह में भासित होता है केंद्र प्रसारित ज्ञान कर्ता, भोक्ता के रूप में दिखायी देता है. जब तक स्मृति है तब तक देहस्थ मैं का बोध है और जब स्मृति निरति में विलीन हो जाती है तब स्वरूप स्थिति का बोध होता है जो यथार्थ मैं है. यह ही ब्रह्म बोध है यहाँ  वह जानता है अहम् ब्रह्मास्मि.  

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2 comments:

  1. प्रसार ज्ञान का गुण है शायद.यदि ऐसा है तो मृत्यु के समय केंद्र प्रसारित ज्ञान स्वप्रसारित ज्ञान में बीज रूप में कैसे विलीन होता होगा.उसकी अपनी सत्ता बनी तो जरूर रहती होगी पर कैसे क्या प्रकृति के गुण उसके साथ मिले होते होंगे तो उसकी सत्ता बनी रहती होगी स्व प्रसारित ज्ञान में तो प्रकीर्ति होती नहीं होगी

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  2. कर्मेन्द्रियाँ अपना कार्य बन्द कर देती हैं, उनका ज्ञान, जिसके द्वारा वह संचालित होती हैं, ज्ञानेन्द्रियों में स्थित हो जाता है। ज्ञानेन्द्रियाँ अपना ज्ञान छोड़ देती हैं और वह ज्ञान विषय वासनाओं एंव प्रकृति सहित पंच भूतों में स्थित हो जाता है। पंच भूत भी ज्ञान छोड़ देते हैं, वह गन्ध में स्थित हो जाता है। गन्ध, रस में स्थित हो जाती है। रस, प्रभा में स्थित हो जाती है। प्रभा, स्पर्श में स्थित हो जाती है। स्पर्श, शब्द में स्थित हो जाता है। शब्द मन में, मन बुद्धि में, बुद्धि अहंकार में, स्थित हो जाती है। अहंकार अपरा (त्रिगुणात्मक) प्रकृति में स्थित हो जाता है। मन मन, बुद्धि, अहंकार, अपरा (त्रिगुणात्मक) प्रकृति केंद्र संचालित ज्ञान+क्रियाशक्ति है. ज्ञान+ क्रियाशक्ति की क्रियाशक्ति सुप्त्वास्था में चली जाती है और वह जीव प्रकृति-ज्ञान सुप्त मैं के साथ स्थित हो जाती है। अब केवल ज्ञान रह जाता है और ज्ञान, ज्ञान (पूर्ण विशुद्ध ज्ञान-अव्यक्त ) में स्थित हो जाता है।
    पुनः ज्ञान (अव्यक्त) से ही ज्ञान (जीव- ज्ञान +मैं) अपनी प्रकृति और कर्मों के साथ नवीन शरीर में बीज रूप से स्थित होकर शरीर धारण करता है तथा पूर्व जन्म की प्रकृति और कर्मानुसार कर्मफल भोगता है और यह क्रम चलता रहता है। यह सत्य है कि बीज का नाश नहीं होता है। जीव अपनी प्रकृति के अनुसार प्रकृति का संयोग कर शरीर का निर्माण करता है।
    परन्तु आत्म स्थित योगी पुरूष जब देह त्याग करते हैं तो उनके संकल्प विकल्प समाप्त हो जाते हैं, उनकी विषय वासनाएं समाप्त हो जाती हैं। उनका मैं समाप्त हो जाता है. उनका ज्ञान पूर्ण और शुद्ध हो जाता है। वह ज्ञानेन्द्रियों से लेकर आत्मा तक परम शुद्ध अवस्था के कारण आत्म रूप में जब स्थित होता है तो परम शुद्ध होता है, उसमें विषय वासनायें, कर्म बन्धन नहीं होते। वह प्रकृति बन्धन से मुक्त हो जाता है। समाधि अवस्था में केवल पूर्ण एवं शुद्ध ज्ञान में, जिसमें कोई हलचल नहीं, तरंग नहीं, स्थित रहता है अथवा किसी संकल्प के साथ बीज रूप में रहता है.

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