Monday, December 12, 2011

चेतना की गीता - Prof.Basant


               चेतना
चित्त वृत्ति चेतना कहलाती है.यह चित्त में जन्म लेती है. चित्त जड़ होता है, उस जड़ से चेतन का का उद्भव व प्रसारण होता है.
जड़ ही अज्ञान की अनंतिम स्थिति है और यह ज्ञान का बीज रूप है अर्थात जड़ अवस्था में ज्ञान बीज रूप होता है. यह ज्ञान जब स्वप्नवत होता है तो चित्त में उसकी छाया पड़ती है  और उसमें हलचल मच जाती है, वह जाग्रत हो उठता है. जिस प्रकृति का चित्त (brain or cell) वैसी हलचल. इसलिए  मानव के विकास की कथा, उसके संघात पिंड-CNS- विकसित होने की बात जीवों के विकास की सुदीर्घ श्रृंखला की एक कडी है जैसा cns वैसा चित्त. यहाँ चित्त की हलचल  विज्ञानमय कोश का विस्तार करती है और चेतना का विस्तार होता जाता है. यहीं द्वेत जन्म लेता है, यहीं मैं जन्म लेता है, संसार और भ्रम यहाँ जन्मते है दूसरे शब्दों में संकल्प द्वारा स्थूलता को प्राप्त होता है.
जब शरीर की नाड़ियों में प्राण वायु संचरण करने लगता है तब तत्काल ही वृत्ति को धारण करने वाला चित्त उत्पन्न होता है. किन्तु जब शरीर की नाड़ियों में प्राण वायु संचरण नहीं करता तब चित्त उत्पन्न नहीं होता है और चेतना का कोई अस्तित्व नहीं होता. ज्ञान से चेतना रूपी तरंग का उत्थान होता है. जीव में यह जीव ज्ञान से उदय होकर चारों ओर फैल जाती है. इसलिए इसे विकृति माना है.
वास्तव में यह सत्व गुण का प्रसार है जिसके कारण उससे मिले गुणों के आधार पर सुख दुःख आदि संवेदनाओ का अनुभव होता है. विभिन्न चेष्टाऐं होती हैं.यह मन और बुद्धि का विस्तार करती है. इसके कारण ही अहम् जाग्रत होता है. इसके द्वारा ही रज तम को गौंण करने पर यह ज्ञान के उच्च धरातल का मार्ग प्रशस्त करती है. सरल रूप में इसे ज्ञान की छाया शक्ति कहा जा सकता है.

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