Tuesday, December 6, 2011

ज्ञान और चेतना - मृत्यु के बाद क्या बचता है?- मरने वाले मनुष्य का ज्ञान बीज रूप में स्थित हो जाता है. –Prof. Basant

वेद, वेदान्त भगवद्गीता आदि ग्रन्थ शास्त्रों में ज्ञान शब्द अनेक बार आया है, यह ज्ञान शब्द का दो अर्थों में प्रयुक्त हुआ है सामान्य रूप में प्रचलित ज्ञान जिसका अर्थ है  किसी को या कुछ अज्ञात है, जो जानकारी, तथ्य, विवरण, अनुभव या शिक्षा के माध्यम अथवा कौशल से शामिल करते हैं, के साथ एक सुपरिचय है.
दूसरा  ज्ञान शब्द का प्रयोग महाबुद्धि अथवा परमबुद्धि के लिए हुआ है. दूसरे शब्दों में इसे पूर्णता (perfection) कहा जाता है. सरल रूप से समझने के लिए  इसे  absolute knowledge+wisdom +intelligence कह सकते है. यही आत्मतत्त्व है, हमारी अस्मिता है.
वर्तमान समाया में कई दार्शनिक चेतना को मूल तत्त्व मान रहे हैं. यहाँ वह प्रत्यक्ष ज्ञान को आधार मानकर अपनी सोच रखते हैं. चेतना महसूस होती है या कहें उसका अनुभव होता है इसलिए जन सामान्य इसे सरलता से स्वीकार कर लेता है. परन्तु वास्तविकता अलग है.
अब कुछ प्रश्न हैं-
यदि चेतना ही सर्वोपरि है तो अचेतन क्या है? ईश्वर तो पूर्ण है और चेतना आधा हिस्सा है, दूसरा चेतना के लिए शरीर आवश्यक है तभी वह महसूस होगी. वास्तव में यह क्रिया शक्ति का परिणाम है. जितनी क्रिया शक्ति उतना चेतना का विस्तार और प्रभाव. भगवदगीता में इसे विकृति माना है अर्थात जो प्रकृति से उत्पन्न होती है. यहाँ प्रकृति का अर्थ nature नहीं है. इसका अर्थ है ईश्वर का nature, इसे क्रिया शक्ति कहना उचित है. इस प्रकार स्पष्ट है कि क्रिया शक्ति अपने मूल स्तर पर चेतना है, प्रकृति है और किसी भी शरीर में विकृति रूप में फैली अनुभूत होती है. इसे प्राणी की जीवनक्रियाओं को चलानेवाला तत्व कहा जा सकता है विज्ञान के अनुसार चेतना वह अनुभूति है जो मस्तिष्क में पहुँचनेवाले अभिगामी आवेगों से उत्पन्न होती है

एक मनुष्य नदी की ओर जा रहा हैयदि वह चलते-चलते नदी तक पहुँच जाता है और नदी में घुस जाता है तो वह डूबकर मर जाएगाउसकी चेतना में फेला ज्ञान उसे बताता है उसके सामने नदी है और वह जमीन पर तो चल सकता है परंतु पानी पर नहीं चल सकतामनुष्य की सभी क्रियाओं पर उपर्युक्त नियम लागू होता है. परन्तु हम  यह मान लेते हैं कि उसकी चेतना ने उसे नदी में जाने से रोका जबकि वास्तविकता यह है कि वह अपरोक्ष रूप से ज्ञान द्वारा जो चेतना का कारण है और चेतना  के माध्यम से प्रवाहित हो रहा है के द्वारा रोका गया.
वास्तव में चेतना ज्ञान के स्फुरण से उत्पन्न क्रिया शक्ति है. चूँकि ज्ञान सर्वत्र है इसलिए इस क्रिया शक्ति में भी ज्ञान है. इस कारण ही चेतना को माननेवाले भ्रमित  हुए बैठे हैं.
अब इसे अद्वैत के माध्यम से समझें चेतना में दो तत्त्व हैं क्रिया शक्ति +ज्ञान. अतः चेतना मूल नहीं है. क्योंकि मूल एक है. और जब तक जीव सृष्टि है तभी तक चेतना का अस्तित्व है.
अब ज्ञान के विषय में चिन्तन करते हैं. इसकी अंतिम स्थिति पूर्ण और विशुद्ध है. यहाँ भी प्रश्न उपस्थित होता है.
यदि ज्ञान पूर्ण है तो अज्ञान क्या है. अज्ञान भी ज्ञान ही है. ज्ञान का बीज रूप में स्थित हो जाना अज्ञान है और शान्त और पूर्णावस्था में मूल रूप से स्थिति ज्ञान है.
यह सत् है क्योंकि यह सदा रहता है, यह असत भी है अर्थात यह संसार के रूप में प्रकट होता है और नष्ट होता भासित होता है. इसके प्रस्फुरण से क्रिया शक्ति जन्म लेती है जो चेतना का मूल है.
म्रत्यु के बाद क्या बचता है-
जब एक आदमी दुख-सुख से भरा हुआ मोहग्रस्त और खेदजनक अथवा सुखमय  स्थितियों में मरता है तो क्या बचता है?
उस मरने वाले मनुष्य का ज्ञान बीज रूप में स्थित हो जाता है.
कर्मेन्द्रियाँ अपना कार्य बन्द कर देती हैं, उनका ज्ञान, जिसके द्वारा वह संचालित होती हैं, ज्ञानेन्द्रियों में स्थित हो जाता हैज्ञानेन्द्रियाँ अपना ज्ञान छोड़ देती हैं और वह ज्ञान विषय वासनाओं एंव प्रकृति सहित पंच भूतों में स्थित हो जाता हैपंच भूत भी ज्ञान छोड़ देते हैं, वह गन्ध में स्थित हो जाता हैगन्ध, रस में स्थित हो जाती हैरस, प्रभा में स्थित हो जाती हैप्रभा, स्पर्श में स्थित हो जाती हैस्पर्श, शब्द में स्थित हो जाता हैशब्द मन में, मन बुद्धि में, बुद्धि अहंकार में, स्थित हो जाती हैअहंकार  अपरा (त्रिगुणात्मक) प्रकृति में स्थित हो जाता हैमन मन, बुद्धि, अहंकार, अपरा (त्रिगुणात्मक) प्रकृति केंद्र संचालित ज्ञान+क्रियाशक्ति है. ज्ञान+ क्रियाशक्ति की क्रियाशक्ति सुप्त्वास्था में चली जाती है और वह जीव प्रकृति-ज्ञान सुप्त मैं के साथ स्थित हो जाती हैअब केवल ज्ञान रह जाता है और ज्ञानज्ञान (पूर्ण विशुद्ध ज्ञान-अव्यक्त ) में स्थित हो जाता है
 पुनः ज्ञान (अव्यक्त) से ही ज्ञान (जीव- ज्ञान +मैं) अपनी प्रकृति और कर्मों के साथ नवीन शरीर में बीज रूप से स्थित होकर शरीर धारण करता है तथा पूर्व जन्म की प्रकृति और कर्मानुसार कर्मफल भोगता है और यह क्रम चलता रहता हैयह सत्य है कि बीज का नाश नहीं होता हैजीव अपनी प्रकृति के अनुसार प्रकृति का संयोग कर शरीर का निर्माण करता है
परन्तु आत्म स्थित योगी पुरूष जब देह त्याग करते हैं तो उनके संकल्प विकल्प समाप्त हो जाते हैं, उनकी विषय वासनाएं समाप्त हो जाती हैंउनका मैं समाप्त हो जाता है. उनका ज्ञान पूर्ण और शुद्ध हो जाता हैवह ज्ञानेन्द्रियों से लेकर आत्मा तक परम शुद्ध अवस्था के कारण आत्म रूप में जब स्थित होता है तो परम शुद्ध होता है, उसमें विषय वासनायें, कर्म बन्धन नहीं होतेवह प्रकृति  बन्धन से मुक्त हो जाता हैसमाधि अवस्था में केवल पूर्ण एवं शुद्ध ज्ञान में, जिसमें कोई हलचल नहीं, तरंग नहीं, स्थित रहता है अथवा किसी संकल्प के साथ बीज रूप में रहता है.
इसे अधिक सरल रूप में समझें. जीवनज्ञान और क्रिया शक्ति का खेल है. ज्ञान  चार अवस्थाओं में रहता है. जाग्रत, स्वप्नवत, सुसुप्ति वत और चौथी  मूल अवस्था में, जिसे शब्दों में बताया नहीं जा सकता. जीवित प्राणी में ज्ञान और क्रिया शक्ति दोनों की स्थिति है. यदि किसी प्राणी में क्रिया शक्ति की मात्र 100% मान  ली जाय तो 90% होने पर 10% क्षय तथा क्रिया शक्ति की मात्र 5% होने पर 95% क्षय और 0% होने 100 % क्षय हो जाती है, जो  मृत्यु कहलाती है. क्रिया शक्ति के क्षय होने पर ज्ञान यथावत रहता है केवल उसको प्रसारित करने वाली ऊर्जा, क्रिया शक्ति समाप्त हो जाती है. अब जैसा ज्ञान वैसा अगला जीवन. अपने अनुकूल परिस्थिति मिलने पुनः क्रिया शक्ति ज्ञान का संयोग करती है और वह ज्ञान जिसे जीव कहा है नए जीवन का, नए शरीर का सृजन करता  है.
जे कृष्णमूर्ती लिखते हैं, मेरी चेतना ही सारी मानवजाति की चेतना है. मैं समझता हूँ यहाँ चेतना के स्थान पर आत्मा अथवा ज्ञान शब्द उपयुक्त होता. क्योंकि चेतना मूल होकर परिणाम है. यद्यपि अन्त में मूल और परिणाम दोनों एक ही हो जाते हैं.



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