Sunday, September 25, 2011

कर्म क्या है, अकर्म क्या है? विकर्म क्या है? - प्रो. बसन्त


                      कर्म  अकर्म  विकर्म 

कर्म अकर्म का निर्णय करने में बड़े बड़े बु़द्धिमान पुरुष भी भ्रम में पड़ जाते हैं फिर साधारण मनुष्यों की तो बात ही क्या है।  कर्म की गति अत्याधिक सूक्ष्म है और उसे समझना बहुत कठिन है।
सभी कर्मों के होने के लिए  पांच कारण सांख्य शास्त्र में बताये हैं. अधिष्ठान ही जीव की देह है। इस देह में जीव (भोक्ता) इस देह को भोगता है अतः दूसरा तत्व जीव कर्ता है। प्रकृति में आत्मा का प्रतिबिम्ब जीव है, आत्मा का देह भाव जीव है। जीव देह में कर्ता, भोक्ता रूप में रहता है। तीसरा तत्व है करण अर्थात भिन्न भिन्न इन्द्रियों का होना और चौथा है चेष्टा जिससे अंग संचालित हों। ज्ञान जब जीभ से से बाहर आता है तो वाणी, नेत्र से बाहर आता है तो दृश्य, पांव से चलना फिरना आदि अर्थात नाना प्रकार की चेष्टाएं। पांचवां दैव अर्थात परिस्थिति अनुकूल है, इन्द्रियां अनुकूल हैं, चित्त भी अनुकूल हो। सभी तत्व अनुकूल हों, यह प्रारब्ध वश होता है। इन हेतुओं से कर्म की रचना होती है।
कोई भी मनुष्य किसी भी क्षण बिना कर्म के नहीं रह सकता सभी प्राणी प्रकृति बाध्य हैं। सांस लेना सांस छोड़ना, सुनना देखना, चलना फिरना, उठना बैठना, शौच आदि सभी स्वाभाविक रुप से होने वाले कर्म हैं । कोई भी मनुष्य या प्राणी स्वाभाविक कर्मों का त्याग नहीं कर सकता है।
सुस्पष्ट है कर्म रहित होना असम्भव है शरीर संचालन भी बिना कर्म के नहीं हो सकता है।
दूसरे के धर्म से गुण रहित अपना धर्म (स्वभाव) अति उत्तम है। दूसरे का धर्म (स्वभाव) यद्यपि श्रेष्ठ हो या दूसरे के धर्म (स्वभाव) को भली प्रकार अपना भी लिया जाय तो भी उस पर चलना अपनी सरलता को खो देना है क्योंकि हठ पूर्वक ही दूसरे के स्वभाव का आचरण हो सकता है, अतः स्वाभाविकता नहीं रहती। अपने धर्म (स्वभाव) में मरना भी कल्याण कारक है दूसरे का स्वभाव भय देने वाला है अर्थात तुम्हारे अन्दर सत्त्व, रज, तम की मात्रा के अनुसार तुम्हारा जो स्वाभाविक स्वभाव है उसका सरलता पूर्वक निर्वहन करना कल्याण कारक है. व्यक्ति स्वाभाविक कर्म करता हुआ सरल होता जाता है, उसे अशान्ति नहीं होती है।
सभी कर्म प्रकृति के गुणों के द्वारा किये जाते हैं अर्थात सत्त्व, रज और तम की विभिन्न मात्रा के अनुसार प्रत्येक प्राणी अलग अलग स्वाभाविक कर्म करता है परन्तु अहंकार के कारण मनुष्य (अज्ञानी जीवात्मा) स्वयं को कर्ता मानता है और कर्म बन्धन में फॅसता है।

कर्म  अकर्म और विकर्म
कर्म क्या है?
ईश्वर ने जीवों के कर्म के अनुसार सृष्टि की रचना करने का जो संकल्प किया उसका नाम कर्म है अर्थात  जैसा कर्म वैसा फल.
अतः  शास्त्र सम्मत अथवा श्रेष्ठ पुरुषों के समान कर्म  करना श्रेष्ठ है. कर्म न करने से कर्म करना श्रेष्ठ है. शुभ कर्म  होंगे तो शुभ फल होगा.
अकर्म
कर्महीनता अकर्म है. कर्महीनता संभव नहीं है और हठ पूर्वक  कर्महीनता मूर्खता है.
विकर्म
निषिद्ध कर्म ही विकर्म है। स्वभाव के विपरीत कर्म भी, विकर्म ही हैं।
अर्जुन श्री कृष्णसे पूछते हैं, यह मनुष्य न चाहता हुआ भी बलपूर्वक लगाए हुए की तरह किससे प्रेरित होकर पाप का आचरण करता है। साधारण मनुष्य गलत रास्ते पर चले तो समझा जा सकता है परन्तु विद्वान व्यक्ति भी गलत रास्ते पर चले जाते हैं।
श्री भगवान ने सुस्पष्ट किया कि रजोगुण से जन्म लिए काम और क्रोध ही मनुष्य को पाप की ओर ले चलते हैं। यह बहुत खाने वाले हैं और कभी तृप्त नहीं होते हैं। यह बड़े पापी हैं तथा आत्मोन्नति के मार्ग में यह प्रबल शत्रु है
जिस प्रकार धुएं से अग्नि ढकी रहती है तथा दर्पण मैले से ढक जाता है, जेर से गर्भ ढका रहता है उसी प्रकार ज्ञान हमेशा काम-क्रोध से ढका रहता है।
अग्नि के समान सदैव असंतुष्ट यह काम, जो सदा ज्ञानियों का प्रबल शत्रु है उन्हें भटकाता रहता है।
यही भ्रष्टाचार और पाप  का कारण है.
यह काम क्रोध इन्द्रिय मन बुद्धि में सदा बैठे रहते हैं यहाँ बैठकर यह सदैव नित्य शुद्ध ज्ञान को ग्रहण की तरह आच्छादित कर जीवात्मा को मोहित करते हैं। इसलिए मनुष्य न चाहता हुआ भी बलपूर्वक पाप का आचरण करता है।
निष्काम कर्म
जो मनुष्य कर्म में अकर्म देखता है, अकर्म में कर्म देखता है अर्थात समस्त कर्म करता हुआ साक्षी भाव से तटस्थ रहता है, कर्म तथा उनके फलों में आसक्त नहीं होता है, त्यागते हुए भोगता है, वह मनुष्यों में बुद्धिमान है और समस्त कर्मों को करने वाला अकर्ता पुरुष है।

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4 comments:

  1. आप ने कर्म की व्याख्या की
    कर्म = ईश्वर का जीवों के कर्म के अनुसार सृष्टि की रचना करने का संकल्प
    (कर्म क्या है?
    ईश्वर ने जीवों के कर्म के अनुसार सृष्टि की रचना करने का जो संकल्प किया उसका नाम कर्म है
    अर्थात जैसा कर्म वैसा फल.)
    अब आप ने कहा…
    अकर्म = कर्महीनता = मूर्खता
    (कर्महीनता अकर्म है. कर्महीनता संभव नहीं है और हठ पूर्वक कर्महीनता मूर्खता है.
    अब आप ने कहा…
    जो मनुष्य कर्म में अकर्म देखता है, अकर्म में कर्म देखता है, वह मनुष्यों में बुद्धिमान है

    (निष्काम कर्म
    जो मनुष्य कर्म में अकर्म देखता है, अकर्म में कर्म देखता है अर्थात समस्त कर्म करता हुआ साक्षी भाव से तटस्थ रहता है, कर्म तथा उनके फलों में आसक्त नहीं होता है, त्यागते हुए भोगता है, वह मनुष्यों में बुद्धिमान है और समस्त कर्मों को करने वाला अकर्ता पुरुष है।)
    निष्कर्ष
    कर्म = ईश्वर का जीवों के कर्म के अनुसार सृष्टि की रचना करने का संकल्प.
    इसमें
    अकर्म = कर्महीनता = मूर्खता
    देखना
    आपकी व्याख्या के अनुसार यह बुद्धिमानता है I
    आप ज्ञानी हैं कृपया मार्ग दर्शन करें I
    कृपया यह मत कहना की आपके द्वारा की गई उपरोक्त व्याख्या ईश्वर पर लागू नहीं होती I
    मैं अज्ञानी हूँ, इसे मेरी धृष्टता न समझें I

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    1. किए हुए कर्म अकर्म और विकर्म के फल की इच्छा को ना रखना ही बुद्धिमानीता है और इसी का वर्णन किया गया है अगर हम अपने द्वारा किए गए किसी भी कृत्य की किसी भी कर्म की विकर्म की या कर्म के फल स्वरुप इच्छा व्यक्त करते हैं वह बुद्धिमता में नहीं आता

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    2. अकर्म
      कर्महीनता अकर्म है. कर्महीनता संभव नहीं है और हठ पूर्वक कर्महीनता मूर्खता है.

      अकर्म का अर्थ है कर्म करते हुए कर्म न करना. जिस कर्म में कोई कामना न हो, जो कर्म निष्काम हो वह अकर्म है. वासना रहित कर्म अकर्म कहलाता है.
      त्यागते हुए भोगो. दान देना है तो यह सोचकर दान दो कि दान देना मेरा कर्तव्य है. कृतघन्ता करने वाले के प्रति भी सम रहो.
      जबरन इन्द्रियों को रोकना सम्भव नहीं है. यदि आप जबरन इन्द्रियों को रोक कर कर्म हीन होते हैं तो ऐसा आचरण कितनी देर तक करेंगे. इसलिए जबरन कर्म हीनता मूर्खता है. संक्षेप में अकर्म निष्काम कर्म है.

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  2. इसकी विस्तृत व्याख्या के लिए श्यामाचरण संघ द्वारा प्रकाशित गीता की आध्यात्मिक व्याख्या देखें संभवतः आपके सभी जिज्ञासाओं को वो पूर्ण करेगी जय श्री कृष्णा

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