Monday, September 19, 2011

कर्मण्येवाधिकारस्ते - तेरा कर्म में नियन्त्रण हो




कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन।
मा कर्मफलहेतुर्भुर्मा ते संगोऽस्त्वकर्मणि।47।

कर्म में अधिकार होवे, फल की इच्छा छोड़ दे
कर्म फल का हेतु मत बन, अनासक्त अकर्म में।। 47।।

श्रीमद्भगवद्गीता के दूसरे अध्याय का  श्लोक संख्या  47  का अंश कर्मण्येवाधिकारस्ते देश विदेश में सर्वाधिक प्रचिलित है. हर योगी,भोगी, समाज सुधारक, विद्वान, उद्योगपति, नेता, अभिनेता, टीवी, अखबार  आदि सब  कर्मण्येवाधिकारस्ते  का उपदेश देता है अरे भाई कर्म करो, हम तो कर्म करते हैं, कोई भी कर्म योगी बन जाता है. इस सूत्र का जितना सत्यानाश इस गीता के देश में किया जा रहा है वह शोचनीय है.

कर्मण्येवाधिकारस्ते क्या है?

तेरा कर्म में अधिकार हो - तेरा कर्म में नियन्त्रण हो अर्थात तुम जो भी छोटा बड़ा कर्म करते हो वह जागते हुए करो. दृष्टा भाव से करो. महावीर  स्वामी ने कर्मण्येवाधिकारस्ते के लिए एक बहुत सुन्दर  सूत्र दिया असुत्तो मुनि  जो जागा हुआ है वह मुनि है. वही कर्म योगी है. यही सम्पूर्ण जीवन का रहस्य है. जागते हुए कर्म करना है तभी कर्मों में नियंत्रण हो सकता है. साक्षी भाव से कर्म होने पर स्वतः फल आसक्ति नहीं रहती है.
कर्म फल की इच्छा नहीं होनी है,  यह तभी हो सकता है जब दृष्टा भाव से कर्म किये जायं.  अन्यथा प्रत्येक शुभ अशुभ कर्म में सदा फल की इच्छा  होती है. फल की इच्छा से कर्म और उसके फल में आसक्ति हो जाती है। मन सदैव उस ओर दौड़ता है। आसक्त व्यक्ति का मन में नियन्त्रण नहीं रहता है। कर्म फलका हेतु भी नहीं होना है और कर्म करने में आसक्ति नहीं होनी है।
अतः श्री भगवान कहते हैं हे अर्जुन  तू किसी कर्म करने का  साधन भी मत बन, यह मत सोच तेरे बिना यह कर्म नहीं होगा। कर्म बन्धन के डर से कर्म त्याग दे ऐसा भी नहीं करना है। कर्म अनासक्त होकर, कर्म अपने नियन्त्रण में रखते हुए साक्षी भाव से करने  हैं।

इस बात को अध्याय संख्या 3 में और सुस्पष्ट करते हैं.

यदि ह्यहं न वर्तेयं जातु कर्मण्यतन्द्रितः ।
मम वर्त्मानुवर्तन्ते मनुष्याः पार्थ सर्वशः ।23

सावधान नहिं कर्मरत, सुना पार्थ चित लाय
बरतेगे तस लोग सब, मार्ग मोर वह जान।। 23।।

यदि मैं सावधानी पूर्वक लोक हित में कार्य न करूं तो लोगों में इस का संदेश गलत जाएगा, क्योंकि मनुष्य मेरे मार्ग का अनुसरण करते हैं। अतः मैं लोक हित में कर्म उसी प्रकार करता हूँ जिस प्रकार सकाम पुरुष कर्म करते हैं।

यहाँ अतन्द्रितः( सावधान) शब्द महत्वपूर्ण है.
कोई भी कर्म जो हो रहा है अथवा जो आप  शुभ अशुभ कर रहे हैं  वह साधरण सकाम कर्म करने वाले की तरह करें  परन्तु  सावधानी पूर्वक करें. यह केवल दृष्टा भाव से ही हो सकता है. इसलिए  अर्जुन को निमित्त मात्र युद्ध करने को कहते हैं.
                      निमित्तमात्र भव सव्यसाचिन

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