भाष्यकार - Prof. Basant Prabhat Joshi
यतेन्द्रियमनोबुद्धिर्मुनिर्मोक्षपरायणः ।
विगतेच्छाभयक्रोधो यः सदा मुक्त एव सः ।28।
कर्म योगी पुरुष जो न किसी से द्वेष करता है और न किसी वस्तु की इच्छा करता है, जो संसार में रहकर भी संसार से अलग है, निमित्त मात्र ही जिसके सब कर्म हैं, वह कर्म योगी सदा सन्यासी समझने योग्य है।
जिनका मन सम भाव में स्थित है जो ब्राह्मण कुत्ते व चाण्डाल में एक भाव अथवा ब्रह्म भाव रखता है; ऐसे पुरुष द्वारा वास्तव में संसार जीत लिया गया है.
अथ पंचमोऽध्यायः कर्मसंन्यासयोग
अर्जुन उवाच
सन्न्यासं कर्मणां कृष्ण पुनर्योगं च शंससि ।
यच्छ्रेय एतयोरेकं तन्मे ब्रूहि सुनिश्चितम् ।1।
यच्छ्रेय एतयोरेकं तन्मे ब्रूहि सुनिश्चितम् ।1।
अर्जुन बोले:- हे कृष्ण, कभी आप कर्म सन्यास को उत्तम बताते हैं, कभी कर्म योग को उत्तम। कृपया इन दोनों में मेरे लिए जो भी कल्याण कारक हो उसे बताने की कृपा करें।
श्रीभगवानुवाच
सन्न्यासः कर्मयोगश्च निःश्रेयसकरावुभौ ।
तयोस्तु कर्मसन्न्यासात्कर्मयोगो विशिष्यते ।2।
तयोस्तु कर्मसन्न्यासात्कर्मयोगो विशिष्यते ।2।
श्री भगवान बोले:- हे अर्जुन, कर्म सन्यास और कर्म योग दोनों ही मनुष्य का परम कल्याण करने वाले हैं। वास्तव में यह दो अलग अलग नहीं एक ही हैं, परन्तु साधन करने में कर्म योग सरल है और श्रेष्ठ है.
ज्ञेयः स नित्यसन्न्यासी यो न द्वेष्टि न काङ्क्षति ।
निर्द्वन्द्वो हि महाबाहो सुखं बन्धात्प्रमुच्यते ।3।
कर्म योगी पुरुष जो न किसी से द्वेष करता है और न किसी वस्तु की इच्छा करता है, जो संसार में रहकर भी संसार से अलग है, निमित्त मात्र ही जिसके सब कर्म हैं, वह कर्म योगी सदा सन्यासी समझने योग्य है। वह राग द्वेष विकारों से रहित होकर संसार के कर्म बन्धन में नहीं पड़ता और मुक्त हो जाता है।
साङ्ख्ययोगौ पृथग्बालाः प्रवदन्ति न पण्डिताः ।
एकमप्यास्थितः सम्यगुभयोर्विन्दते फलम् ।4।
एकमप्यास्थितः सम्यगुभयोर्विन्दते फलम् ।4।
अज्ञानी मुनष्य कर्म योग और सन्यास (सांख्य) योग को अलग अलग समझते हैं, जिन्होंने अच्छी प्रकार अनुभव करके आत्मतत्व को समझ लिया है, जो आत्मतत्व में स्थित हो गये हैं, वह दोनो योगों को एक ही समझते हैं।
यत्साङ्ख्यैः प्राप्यते स्थानं तद्यौगैरपि गम्यते ।
एकं साङ्ख्यं च योगं च यः पश्यति स पश्यति ।5।
एकं साङ्ख्यं च योगं च यः पश्यति स पश्यति ।5।
ज्ञान योगियों (सन्यास) द्वारा जो स्थिति उपलब्ध की जाती है, कर्म योग द्वारा भी योगी उस स्थिति को प्राप्त होता है। अतः जो कर्म योग और ज्ञान योग को एक देखता है, वह आत्मतत्व का अधिकारी पुरुष है, वही स्वरूप स्थिति को जानता है।
सन्न्यासस्तु महाबाहो दुःखमाप्तुमयोगतः ।
योगयुक्तो मुनिर्ब्रह्म नचिरेणाधिगच्छति ।6।
योगयुक्तो मुनिर्ब्रह्म नचिरेणाधिगच्छति ।6।
हे अर्जुन, कर्म योग के बिना सन्यास योग (कर्म-सन्यास) की प्राप्ति कठिन है। कर्म योग का आचरण करने वाला मुनि (जो सदैव जाग्रत है, साक्षी भाव में स्थित है) ब्राह्मी स्थिति को शीघ्र व सरलता पूर्वक प्राप्त कर लेता है।
योगयुक्तो विशुद्धात्मा विजितात्मा जितेन्द्रियः ।
सर्वभूतात्मभूतात्मा कुर्वन्नपि न लिप्यते ।7।
सर्वभूतात्मभूतात्मा कुर्वन्नपि न लिप्यते ।7।
जिसने अपने मन को जीत लिया है जो जितेन्द्रिय है, ऐसा विशुद्ध आत्मा, सम्पूर्ण प्राणियों की आत्मा परमात्मा हो जाता है। वह सम्पूर्ण सृष्टि में व्याप्त हो जाता है। ऐसा कर्म योगी कर्म करता हुआ भी कर्म में लिप्त नहीं होता । क्योंकि विश्वात्मा होने पर उसमें निजी व दूसरे की भावना समाप्त हो जाती है। कर्ता, कर्म, क्रिया का स्वभावतः अभाव हो जाता है।
नैव किंचित्करोमीति युक्तो मन्येत तत्ववित् ।
पश्यञ्श्रृण्वन्स्पृशञ्जिघ्रन्नश्नन्गच्छन्स्वपंश्वसन् ।8।
प्रलपन्विसृजन्गृह्णन्नुन्मिषन्निमिषन्नपि ॥
इन्द्रियाणीन्द्रियार्थेषु वर्तन्त इति धारयन् ।9।
पश्यञ्श्रृण्वन्स्पृशञ्जिघ्रन्नश्नन्गच्छन्स्वपंश्वसन् ।8।
प्रलपन्विसृजन्गृह्णन्नुन्मिषन्निमिषन्नपि ॥
इन्द्रियाणीन्द्रियार्थेषु वर्तन्त इति धारयन् ।9।
तत्व को जानने वाला योगी, मैं पन के अभाव से रहित हो जाता है और वह देखता हुआ, सुनता हुआ, स्पर्श करता हुआ, सूघंता हुआ, भोजन करता, हुआ गमन, करता हुआ, सोता हुआ, श्वास लेता हुआ, बोलता हुआ, त्यागता हुआ, ग्रहण करता हुआ, आँख खोलता हुआ, मूँदता हुआ किसी भी शारीरिक कर्म में सामान्य मनुष्य की तरह लिप्त नहीं होता है। वह यह जानता है कि इन्द्रियाँ अपने अपने कार्यों को कर रही हैं अतः उसमें कर्तापन का भाव नहीं होता है।
ब्रह्मण्याधाय कर्माणि सङ्गं त्यक्त्वा करोति यः ।
लिप्यते न स पापेन पद्मपत्रमिवाम्भसा ।।10
लिप्यते न स पापेन पद्मपत्रमिवाम्भसा ।।10
जो सब कर्मों को परमात्मा में अर्पण करके आसक्ति का त्यागकर कर्म करता है और कभी भी कर्म बन्धन में लिप्त नहीं होता है, जैसे कमल का पत्ता जल में रहते हुए भी जल से लिप्त नहीं होता है।
कायेन मनसा बुद्धया केवलैरिन्द्रियैरपि ।
योगिनः कर्म कुर्वन्ति संग त्यक्त्वात्मशुद्धये ।11।
योगिनः कर्म कुर्वन्ति संग त्यक्त्वात्मशुद्धये ।11।
कर्म योगी केवल इन्द्रिय मन बुद्धि और शरीर द्वारा आसक्ति को त्याग कर स्थित होकर कर्म करते हैं। ऐसा कर्म योगी स्वभावतः कर्म करता है, उसका व्यवहार बच्चे के समान होता है जो मिट्टी और सोने को समान समझता है। योगी अपने मन को वश करके इन्द्रियों से व्यवहार करते हैं। अहम् व देह बुद्धि न होने से वे कर्म बन्धन में नहीं बंधते हैं। वह निरन्तर आत्म स्थित रहते हैं।
युक्तः कर्मफलं त्यक्त्वा शान्तिमाप्नोति नैष्ठिकीम् ।
अयुक्तः कामकारेण फले सक्तो निबध्यते ।12।
अयुक्तः कामकारेण फले सक्तो निबध्यते ।12।
कर्म योगी कर्म फल की आसक्ति का पूर्णतया त्याग करके निरन्तर शान्ति को प्राप्त होता है। क्योंकि वह पूर्ण ज्ञान को प्राप्त हो जाता है; उस सम्पूर्ण ज्ञान की शान्तावस्था में निरन्तर रमण करता है और जो सकाम पुरुष हैं वह विभिन्न इच्छाओं के लिए फल में आसक्त होकर कर्म बन्धन में फॅसते हैं।
सर्वकर्माणि मनसा संन्यस्यास्ते सुखं वशी ।
नवद्वारे पुरे देही नैव कुर्वन्न कारयन् ।13।
नवद्वारे पुरे देही नैव कुर्वन्न कारयन् ।13।
जो मनुष्य नवद्वार वाले शरीर में सभी कर्मो को मन से त्यागकर अर्थात अकर्ता भाव से कर्म करते हुए फल की इच्छा त्याग देता है और शरीर में रहते हुए भी नहीं रहता है, ऐसा वशी पुरुष जिसने मन से इन्द्रियों का निग्रह कर लिया है; जिसकी बुद्धि स्थिर है, जो कर्म फल की इच्छा से मुक्त है, न करता हुआ, न करवाता हुआ आत्मानन्द में रहता
न कर्तृत्वं न कर्माणि लोकस्य सृजति प्रभुः ।
न कर्मफलसंयोगं स्वभावस्तु प्रवर्तते ।14।
न कर्मफलसंयोगं स्वभावस्तु प्रवर्तते ।14।
परमेश्वर वास्तव में अकर्ता है, वह संसार के जीवों के न कर्तापन की, न कर्मों की, न कर्म फल संयोग की रचना करते हैं; किन्तु स्वभाव ही इस सबका कारण है अर्थात माया का आरोपण जब ईश्वर में कर दिया जाता है तो उसे कर्ता समझने लगते हैं। परन्तु परमात्मा अपने अकर्ता स्वरूप में स्थित रहते हुए कोटि कोटि ब्रह्माण्डों का सृजन कर देते हैं। यह सब उनकी प्रकृति के कारण होता है। मनुष्य में भी प्रकृति (स्वभाव) उसके कर्तापन, कर्म और कर्मफल संयोग का कारण है.
नादत्ते कस्यचित्पापं न चैव सुकृतं विभुः ।
अज्ञानेनावृतं ज्ञानं तेन मुह्यन्ति जन्तवः ।15।
अज्ञानेनावृतं ज्ञानं तेन मुह्यन्ति जन्तवः ।15।
परमात्मा न किसी के पाप कर्म को न किसी के शुभ कर्म को ग्रहण करता है। पाप और पुण्य जीवत्व भाव अथवा शरीर भाव के कारण उत्पन्न होते हैं। परमात्मा नित्य शुद्ध आत्मतत्व है, निराकार है अतः पाप पुण्य से उसका कोई वास्ता नहीं है। अज्ञान से ज्ञान ढका हुआ है; ब्रह्म माया से छिपा हुआ है, आत्मा अनात्म तत्वों से ढकी हुयी है, इस कारण जीव अपने स्वरूप को नहीं पहचान पाता और वह मोहित हो रहा है।
ज्ञानेन तु तदज्ञानं येषां नाशितमात्मनः ।
तेषामादित्यवज्ज्ञानं प्रकाशयति तत्परम् ।16।
तेषामादित्यवज्ज्ञानं प्रकाशयति तत्परम् ।16।
परन्तु जिनका अज्ञान आत्म ज्ञान के कारण नष्ट हो गया है, उसका वह आत्म ज्ञान सूर्य के समान उस परम तत्व को प्रकाशित कर देता है। अज्ञान के विलीन होते ही देह भाव, जीव भाव नष्ट हो जाता है। ब्रह्म भाव स्वयं ही उसमें उदित हो जाता है।
तद्बुद्धयस्तदात्मानस्तन्निष्ठास्तत्परायणाः ।
गच्छन्त्यपुनरावृत्तिं ज्ञाननिर्धूतकल्मषाः ।17।
गच्छन्त्यपुनरावृत्तिं ज्ञाननिर्धूतकल्मषाः ।17।
जिसका मन आत्मा में स्थित है, जो निरन्तर ब्रह्म भाव में स्थित है, सदा आत्मरत है; जिनके कर्म दोष ज्ञान द्वारा भस्म हो गये हैं अर्थात आसक्ति जिनकी नष्ट हो गयी है उनके कर्म फल तथा माया के कारण निश्चित आवागमन समाप्त हो जाता है। वह निज इच्छा से स्वयं प्रकट होते हैं। सांसारिक आवागमन के बन्धन से वह सदा के लिए मुक्त हो जाते हैं।
विद्याविनयसम्पन्ने ब्राह्मणे गवि हस्तिनि ।
शुनि चैव श्वपाके च पण्डिताः समदर्शिनः ।18।
शुनि चैव श्वपाके च पण्डिताः समदर्शिनः ।18।
जिनका मन सम भाव में स्थित है जो ब्राह्मण कुत्ते व चाण्डाल में एक भाव अथवा ब्रह्म भाव रखता है; ऐसे पुरुष द्वारा वास्तव में संसार जीत लिया गया है अर्थात वह संसार बन्धन से ऊपर हो जाते हैं। ब्रह्म, दोष रहित और सम है और वह भी समभाव के कारण दोष रहित हो ब्रह्म स्वरूप हो जाते हैं। यही ब्राह्मी स्थिति है।
इहैव तैर्जितः सर्गो येषां साम्ये स्थितं मनः ।
निर्दोषं हि समं ब्रह्म तस्माद् ब्रह्मणि ते स्थिताः ।19।
निर्दोषं हि समं ब्रह्म तस्माद् ब्रह्मणि ते स्थिताः ।19।
जिनका मन सम भाव में स्थित है जो ब्राह्मण कुत्ते व चाण्डाल में एक भाव अथवा ब्रह्म भाव रखता है; ऐसे पुरुष द्वारा वास्तव में संसार जीत लिया गया है अर्थात वह संसार बन्धन से ऊपर हो जाते हैं। ब्रह्म, दोष रहित और सम है और वह भी समभाव के कारण दोष रहित हो ब्रह्म स्वरूप हो जाते हैं। यही ब्राह्मी स्थिति है।
न प्रहृष्येत्प्रियं प्राप्य नोद्विजेत्प्राप्य चाप्रियम् ।
स्थिरबुद्धिरसम्मूढो ब्रह्मविद् ब्रह्मणि स्थितः ।20।
स्थिरबुद्धिरसम्मूढो ब्रह्मविद् ब्रह्मणि स्थितः ।20।
जो प्रिय को पाकर हर्षित नहीं होता, तथा अप्रिय को पाकर उद्विग्न नहीं होता है, सदा उदासीन और परम शान्ति में स्थित, स्थिर बुद्धि जिसके संशय समाप्त हो गये हैं; ब्रह्म वेत्ता पुरुष सदा ब्रह्म में स्थित रहता है अर्थात स्वयं ब्रह्म स्वरूप होता है।
बाह्यस्पर्शेष्वसक्तात्मा विन्दत्यात्मनि यत्सुखम् ।
स ब्रह्मयोगयुक्तात्मा सुखमक्षयमश्नुते ।21।
स ब्रह्मयोगयुक्तात्मा सुखमक्षयमश्नुते ।21।
जिसका अन्तःकरण बाहरी विषयों में नहीं डोलता है ऐसा आसक्ति रहित पुरुष आत्मानन्द को प्राप्त होता है। वह ब्रह्म स्थित पुरुष सदा अक्षय आनन्द का अनुभव करता है।
ये हि संस्पर्शजा भोगा दुःखयोनय एव ते ।
आद्यन्तवन्तः कौन्तेय न तेषु रमते बुधः ।22।
आद्यन्तवन्तः कौन्तेय न तेषु रमते बुधः ।22।
परन्तु जो विषयी पुरुष हैं उन्हें इन्द्रिय तथा विषयों के संयोग से होने वाले समस्त भोग सुख रूप लगते हैं परन्तु उनका परिणाम मात्र दुख है। यह सभी सांसारिक भोग थोडे़ समय के होते है। इनका प्रारम्भ और अन्त है अतः ज्ञानी पुरुष इन विषयों को मन से ग्रहण नहीं करता है।
शक्नोतीहैव यः सोढुं प्राक्शरीरविमोक्षणात् ।
कामक्रोधोद्भवं वेगं स युक्तः स सुखी नरः ।23।
कामक्रोधोद्भवं वेगं स युक्तः स सुखी नरः ।23।
जो पुरुष शरीर के नाश होने से पहले काम क्रोध से उत्पन्न वेग को सहने में समर्थ हो जाता है वह पुरुष आत्म स्थित योगी है, वही सुखी है। आत्म स्थित पुरुष का अहंकार समाप्त हो जाता है, अहंकार समाप्त होते ही स्वरूप स्थिति प्राप्त होती है। जहाँ केवल ज्ञान है, आनन्द है। अतः उनमें काम क्रोध का अंश मात्र भी नहीं होता है।
योऽन्तःसुखोऽन्तरारामस्तथान्तर्ज्योतिरेव यः ।
स योगी ब्रह्मनिर्वाणं ब्रह्मभूतोऽधिगच्छति ।24।
जो पुरुष अपनी आत्मा से सुखी हैं सदा अपनी आत्मा में रमण करते हैं, आत्म ज्ञान से जो स्वयं प्रकाशित है वह ब्रह्म स्थित योगी सर्वोतम, नाश न होने वाले असीम ब्रह्म सुख को प्राप्त होते हैं। यही ब्रह्म निर्वाण है।
लभन्ते ब्रह्मनिर्वाणमृषयः क्षीणकल्मषाः ।
छिन्नद्वैधा यतात्मानः सर्वभूतहिते रताः ।25।
छिन्नद्वैधा यतात्मानः सर्वभूतहिते रताः ।25।
जिनके समस्त कर्म फल दोष समाप्त हो गये हैं, जिनके सब संशय समाप्त हो गये हैं अर्थात जिन्हें कोई भ्रान्ति नहीं है, जो सभी प्राणियों का हित करने वाले हैं, सभी को अभय देना जिनका स्वभाव है, जो साधना से आत्मा में स्थित हैं, ऐसे ब्रह्मवेता पुरुष ब्रह्म निर्वाण को प्राप्त होते हैं ।
कामक्रोधवियुक्तानां यतीनां यतचेतसाम् ।
अभितो ब्रह्मनिर्वाणं वर्तते विदितात्मनाम् ।26।
अभितो ब्रह्मनिर्वाणं वर्तते विदितात्मनाम् ।26।
जो काम क्रोध से मुक्त हैं, जिन्होंने अपना चित्त वश में कर लिया है, जो नित्य आत्म स्थित होकर आत्मा को जानते हैं ऐसे ज्ञानी पुरुषों के लिए ब्रह्म निर्वाण ही परम श्रेय है और इसी ब्राह्मी स्थिति में वह सतत् बने रहते हैं।
स्पर्शान्कृत्वा बहिर्बाह्यांश्चक्षुश्चैवान्तरे भ्रुवोः ।
प्राणापानौ समौ कृत्वा नासाभ्यन्तरचारिणौ ।27।
प्राणापानौ समौ कृत्वा नासाभ्यन्तरचारिणौ ।27।
वैराग्य द्वारा बाहर के विषयों को बाहर निकालकर, मन को संयमित करते हुए, नेत्रों को भृकुटी के मध्य में स्थित कर तथा नासिका में विचरने वाले प्राण अपान वायु को प्राणायाम द्वारा सम करके ब्रह्मरंघ्र की ओर ले जाने वाले योगी, जिसने इन्द्रिय, मन, बुद्धि को यत्न करके अपने वश में कर लिया है; जो केवल मोक्ष की कामना करता है ऐसा मननशील योगी इच्छा भय और क्रोध से रहित होकर सदा सदा के लिए मुक्त हो जाता है। उसका माया बन्धन कट जाता है और वह स्वरूप स्थिति को प्राप्त कर लेता है।
यतेन्द्रियमनोबुद्धिर्मुनिर्मोक्षपरायणः ।
विगतेच्छाभयक्रोधो यः सदा मुक्त एव सः ।28।
वैराग्य द्वारा बाहर के विषयों को बाहर निकालकर, मन को संयमित करते हुए, नेत्रों को भृकुटी के मध्य में स्थित कर तथा नासिका में विचरने वाले प्राण अपान वायु को प्राणायाम द्वारा सम करके ब्रह्मरंघ्र की ओर ले जाने वाले योगी, जिसने इन्द्रिय, मन, बुद्धि को यत्न करके अपने वश में कर लिया है; जो केवल मोक्ष की कामना करता है ऐसा मननशील योगी इच्छा भय और क्रोध से रहित होकर सदा सदा के लिए मुक्त हो जाता है। उसका माया बन्धन कट जाता है और वह स्वरूप स्थिति को प्राप्त कर लेता है।
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भोक्तारं यज्ञतपसां सर्वलोकमहेश्वरम् ।
सुहृदं सर्वभूतानां ज्ञात्वा मां शान्तिमृच्छति ।29।
सुहृदं सर्वभूतानां ज्ञात्वा मां शान्तिमृच्छति ।29।
हे अर्जुन, मैं समस्त यज्ञ और तपों को भोगने वाला सम्पूर्ण लोकों का महेश्वर तथा सभी प्राणियों को सदा अभय देने वाला, कृपा करने वाला स्वार्थ रहित मित्र हूँ। जो आत्म स्थित मुझे इस प्रकार तत्व से जानता है वह आत्म स्वरूप होकर स्वयं ज्ञान को प्राप्त कर परमशान्ति को प्राप्त हो जाता है।
ॐ तत्सदिति श्रीमद्भगवद्गीतासूपनिषत्सु ब्रह्मविद्यायां योगशास्त्रे श्रीकृष्णार्जुनसंवादे कर्मसंन्यासयोगो नाम पंचमोऽध्यायः ॥5॥
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