Tuesday, February 14, 2012

ज्ञान गीता - मोक्ष और ब्रह्मत्व - प्रो. बसन्त जोशी


मोक्ष और ब्रह्मत्व - अनेक जन्मों का सिद्ध पुरुष परम सिद्धि को प्राप्त होता है.

वैज्ञानिक भाषा में कहा जाया तो चित्त की समस्त वृत्तियों का निरोध मोक्ष है अर्थात मस्तिष्क में उत्पन्न होने वाली कामनाओं का पूर्णरूपेण शान्त और स्थिर हो जाना मोक्ष है. महात्मा बुद्ध ने इसे शून्य और अंतिम स्थिति माना है. महर्षि पतंजलि चित्त वृत्ति निरोध को ईश्वर से जुड़ना मानते हुए कहते हैं कि इसके बाद ही परमतत्त्व का बोध होता है. इससे स्पष्ट है कि ईशत्व (परमतत्त्व) और मोक्ष दो अलग अलग स्थितियाँ हैं, इसमें मोक्ष अंतिम से पहिला पड़ाव है और ईशत्व अंतिम पड़ाव. चित्त की समस्त वृत्तियों के रुकने पर शरीर में फैली चेतना स्थिर  हो जाती है और चैतन्य और शरीर दोनों अलग अलग हो जाते हैं. शरीर स्थिर हो जाता है और चैतन्य जो पूर्ण ज्ञानमय है वह स्वयं को भी देखता है और शरीर को भी जानता है. चैतन्य प्रकट होने पर  मन बुद्धि अहँकार ज्ञानेन्द्रिय प्राण और प्रकृति आदि का सूक्ष्म शरीर नष्ट हो जाता है और इसका स्थान भी चैतन्यमय शरीर ले लेता है. इसे समाधि भी कहते हैं. समाधि टूटने पर पुनः सूक्ष्म शरीर का निर्माण हो जाता है क्योंकि पूर्ण ईशत्व उपलब्ध नहीं हुआ होता है. पूर्ण ईशत्व, चैतन्य निर्विकल्प समाधि जिसे निर्बीज समाधि कहा है के लगातार सात दिन तक सिद्ध होने पर ही उपलब्ध होता है, इस समाधि प्रयास में समाधि प्राप्त योगियों को अनेक वर्ष और अनेक जन्म लग जाते हैं. इसके लिए समाधि के स्वरूपों को जानना होगा.
वितार्कानुगत
विचारानुगत
आनंदानुगत
अस्मितानुगत - विवेक ख्याति
असम्प्रज्ञात अथवा निर्बीज समाधि
वितार्कानुगत समाधि में साधक में जिज्ञासा का भाव होता है, वह ईश्वर को खोजता है, तर्क वितर्क उसके मन में चलते हैं, इन तर्क वितर्को से वह ईश्वर के भिन्न भिन्न सुने समझे रूपों को अथवा उसके निराकार स्वरूप को जानने का प्रयास करता है और इनको अनुभव भी करता है.
विचारानुगत समाधि में साधक के ईश्वर संबंधी विचार पुष्ट हो जाते हैं. विचारों से वह ईश्वर के सत्य स्वरूप को समझ जाता है. विचार पुष्ट हो जाता है और उसका चिन्तन बढने लगता है. यहाँ उसे आनन्द की यदा कदा झलक मिलती है. यहाँ वह विचारों में अनुभव करता है कि ईश्वर का उसके अंदर निवास है, वह ईश्वर का स्वरूप है, यह विचार पुष्ट हो जाता है.इसे प्रति बोध कहा जा सकता है.
आनंदानुगत समाधि में विचार शान्त हो जाते हैं. गहरी नीद जैसी यह अवस्था होती है. साधक परम शान्ति को अनुभव करता है परन्तु यहाँ अहं वृत्ति रहती है.
अस्मितानुगत समाधि में साधक को अपने स्वरूप का बोध होता है. यहाँ वह जानता है कि वही ब्रह्म है, वही ईश्वर है. दोनों एक हैं परन्तु यहाँ भी सूक्ष्म बीज रूप में अहँकार शेष रह जाता है. यहाँ वितर्क, विचार और आनन्द का लोप हो जाता है. यहाँ अस्मि वृत्ति रहती है.

असम्प्रज्ञात अथवा निर्बीज समाधि इसमें निरति निराधार हो जाती है. यह निरालम्ब अवस्था है. यहाँ योगी ईशत्व  को प्राप्त होता है. यहाँ मस्तिष्क की क्षमता ब्रह्मांडीय हो जाती है. इसे यह भी कहा जा सकता है कि मस्तिष्क में सम्पूर्ण ब्रह्मांडीय शक्तियों का स्वाभविक प्रवेश हो जाता है. इसे COSMIC MIND की स्थिति कह सकते हैं. शुद्ध चैतन्य जो ज्ञान स्वरूप है वह प्रकट हो जाता है. यह अवस्था ही ईशत्व है, ब्रह्मत्व है.
यहाँ यह भी स्पष्ट करना जरूरी है कुछ विरले साधक ही
आनंदानुगत समाधि तक पहुँच पाते हैं और उसी को मोक्ष समझकर संतुष्ट हो जाते हैं. इनमें से कुछ विरले महात्मा अस्मितानुगत समाधि तक पहुँच पाते हैं, यहाँ अनेक सिद्धियाँ उनमें आ जाती हैं.
यहाँ से पूर्ण असम्प्रज्ञात अथवा निर्बीज समाधि समाधि का मार्ग बहुत कठिन है. इसे पार करने में एक जन्म से लेकर अनेक युग  भी लग जाते हैं. शंकराचार्य ने स्पष्ट लिखा है कि जो महापुरुष निर्विकल्प समाधि में स्थित हो गये हैं उन के अंदर भी जन्म जन्मांतर की अतृप्त वासनाएँ देखी जाती हैं.
ये निर्विकल्पाख्यसमाधिनिश्चला
स्तानन्ततरानन्तभवा हि वासनाः
बंध और मोक्ष दोनों बुद्धि के गुण हैं और ब्रह्म एक अविनाशी अद्वितीय चेतन्य ज्ञान स्वरूप है. इस बात की पुष्टि करते हुए भगवद्गीता कहती है-
अनेक जन्मों का सिद्ध पुरुष परम सिद्धि को प्राप्त होता है.